इसी प्रकार लोकदृष्टि से भासने वाले महान् से महान् दुःख में वे महात्मा विचलित नहीं होते, क्योंकि उनकी दृष्टिमें दुःख-सुख कोई वस्तु ही नहीं रह गये हैं । ऐसे महापुरुष ही ब्रह्म में नित्य स्थित समझे जाते हैं। भगवान् ने गीतामें कहा है-
न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्।
स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः॥
ऐसे स्थिरबुद्धि संशय-शून्य ब्रह्मवित् महात्मा लोकदृष्टि से प्रिय प्रतीत होनेवाली वस्तु को पाकर हर्षित नहीं होते और लोकदृष्टि से अप्रिय पदार्थ को पाकर उद्विग्न नहीं होते, क्योंकि वे सच्चिदानन्दघन सर्वरूप परब्रह्म परमात्मा में नित्य अभिन्न भावसे स्थित हैं। जगत् के लोगो को जिस घटनामें अमंगल दीखता है, महात्माओंकी दृष्टिमें वही घटना ब्रह्मसे ओतप्रोत होती है, इसलिये वे न तो ऐसी घटनाका विरोध करते हैं और न उससे विपरीत घटनाके लिये आकांक्षा करते हैं। क्योंकि वे सांसारिक शुभाशुभ के परित्यागी हैं।
ऐसे महापुरुषोंद्वारा जो कुछ क्रियाएं होती हैं, उनसे कभी जगत्का अमंगल नहीं हो सकता, चाहे वे क्रियाएं लोकदृष्टिमें प्रतिकूल ही प्रतीत होती हों। सत्यपर स्थित और केवल सत्यके ही लक्ष्यपर चलनेवाले लोगोंकी चाल विपरीतगति असत्य-परायण लोगोंको प्रतिकूल प्रतीत हो सकती है और वे सब उनको दोषी भी बतला सकते है, परन्तु सत्यपर स्थित महात्मा उन लोगोंकी कोई परवा नहीं करते। वे अपने लक्ष्यपर सदा अटलरूपसे स्थित रहते हैं। लोगों की दृष्टिमें महाभारत-युद्धसे भारतवर्ष की बहुत हानि हुई, पर जिन परमात्माके संकेतसे यह संहार-लीला सम्पन्न हुई, उनकी, और उनके रहस्य को समझनेवाले दिव्यकर्मी पुरुषों की दृष्टिमें उससे देश और विश्व का बड़ा भारी मंगल हुआ । इसीलिये दिव्यकर्मी अर्जुन भगवान् के सङ्केतानुसार सब प्रकार के धर्मों का आश्रय छोड़कर केवल भगवान् के वचनके अनुसार ही महासंग्राम के लिये सहर्ष प्रस्तुत होगया था । जगत्में ऐसी बहुत-सी बातें होती हैं जो बहुसंख्यक लोगोंके मतसे बुरी होनेपर भी उनके तत्त्वज्ञके मतमें अच्छी होती हैं और यथार्थमें अच्छी ही होती हैं, जिनका अच्छापन समयपर बहुसंख्यक लोगोंके सामने प्रकट और प्रसिद्ध होनेपर वे उसे मान भी लेते हैं, अथवा ऐसा भी होता है कि उनका अच्छापन कभी प्रसिद्ध ही नहीं हो पाता। परन्तु इससे उनके अच्छे होनेमें कोई आपत्ति नहीं होती। सत्य कभी असत्य नहीं हो सकता, चाहे उसे सारा संसार सदा असत्य ही समझता रहे। अतएव जो भगवत्तत्त्व और भगवान् की दिव्य लीलाका रहस्य समझते हैं, उनके दृष्टिकोणमें जो कुछ यथार्थ प्रतीत होता है वही यथार्थ है। परन्तु इनकी यथार्थ प्रतीति साधारण बहुसंख्यक लोगोंकी समझसे प्रायः प्रतिकूल ही हुआ करती है। क्योंकि दोनोंके ध्येय और साधनामें पूरी प्रतिकूलता रहती है।
शेष आगामी पोस्ट में ...................
...............००४. ०५. मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८६वि०. कल्याण ( पृ० ७५९ )
कृष्णा ही कृष्णा बाकी सब कुछ झूठ व्यर्थ
जवाब देंहटाएंश्री हरि
जवाब देंहटाएंHare...hare...
जवाब देंहटाएं🌸🌹🌾जय श्री हरि: !!🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय