शुकदेव
को नारदजी का सदाचार और अध्यात्मविषयक उपदेश
नारद
उवाच
अशोकं
शोकनाशार्थं शास्त्रं शान्तिकरं शिवम् ।
निशम्य
लभते बुद्धिं तां लब्ध्वा सुखमेधते ॥ १ ॥
नारदजी कहते
हैं— शुकदेव ! शास्त्र शोकको दूर करनेवाला, शान्तिकारक और
कल्याणमय है। जो अपने शोकका नाश करनेके लिये शास्त्रका श्रवण करता है, वह उत्तम बुद्धि पाकर सुखी हो जाता है॥१॥
शोकस्थानसहस्त्राणि
भयस्थानशतानि च।
दिवसे
दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम् ॥ २ ॥
शोकके
सहस्रों और भयके सैकड़ों स्थान हैं, जो प्रतिदिन मूढ़
पुरुषोंपर ही अपना प्रभाव डालते हैं, विद्वान्पर नहीं ॥ २ ॥
तस्मादनिष्टनाशार्थमितिहासं
निबोध मे |
तिष्ठते
चेद् वशे वशे बुद्धिर्लभते शोकनाशनम् ॥ ३ ॥
इसलिये अपने
अनिष्टका नाश करनेके लिये मेरा यह उपदेश सुनो- यदि बुद्धि अपने वशमें रहे तो सदाके
लिये शोकका नाश हो जाता है ॥ ३ ॥
अनिष्टसम्प्रयोगाच्च
विप्रयोगात् प्रियस्य च।
मनुष्या
मानसैर्दुःखैर्युज्यन्ते स्वल्पबुद्धयः॥४॥
मन्दबुद्धि
मनुष्य ही अप्रिय वस्तुकी प्राप्ति और प्रिय वस्तुका वियोग होनेपर मन-ही-मन दु:खी
होते हैं ॥ ४ ॥
द्रव्येषु
समतीतेषु ये गुणास्तान् न चिन्तयेत् ।
न
तानाद्रियमाणस्य स्नेहबन्धः प्रमुच्यते ॥ ५ ॥
जो वस्तु
भूतकाल के गर्भ में छिप गयी ( नष्ट हो गयी), उसके गुणोंका स्मरण
नहीं करना चाहिये; क्योंकि जो आदरपूर्वक उसके गुणोंका चिन्तन
करता है, उसका उसके प्रति आसक्तिका बन्धन नहीं छूटता है ॥५॥
दोषदर्शी
भवेत् तत्र यत्र रागः प्रवर्तते ।
अनिष्टवर्धितं
पश्येत् तथा क्षिप्रं विरज्यते ॥ ६॥
जहाँ चित्तकी
आसक्ति बढ़ने लगे,
वहीं दोषदृष्टि करनी चाहिये और उसे अनिष्टको बढ़ानेवाला समझना
चाहिये। ऐसा करनेपर उससे शीघ्र ही वैराग्य हो जाता है ॥ ६ ॥
नार्थो
न धर्मो न यशो योऽतीतमनुशोचति ।
अप्यभावेन
युज्येत तच्चास्य न निवर्तते ॥ ७ ॥
जो बीती बात
लिये शोक करता है,
उसे न तो अर्थ की प्राप्ति होती है, न धर्म की
और न यशकी ही प्राप्ति होती है। वह उसके अभाव का अनुभव करके केवल दुःख ही उठाता
है। उससे अभाव दूर नहीं होता ॥ ७ ॥
......शेष
आगामी पोस्ट में
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण
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