रविवार, 2 जुलाई 2023

जीवन्मुक्तगीता (पोस्ट.. 04)

 

|| श्री परमात्मने नम: ||

 


ऊर्ध्वध्यानेन पश्यन्ति विज्ञानं मन उच्यते ।

शून्यं लयं च विलयं जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ १४ ॥

 

उच्चध्यान में स्थित होकर जिस चैतन्य का दर्शन योगीजन करते हैं, वह 'मन' कहा जाता है । उस मन को शून्य, लय तथा विलय की प्रक्रिया से जो युक्त कर लेता है, वही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ १४ ॥

 

अभ्यासे रमते नित्यं मनो ध्यानलयङ्गतम्।

बन्धमोक्षद्वयं नास्ति जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ १५ ॥

 

मन को ध्यान से लय करके जो नित्य अभ्यास में लगा रहता है और जिसे यह ज्ञान हो गया है कि बन्धन और मोक्ष दोनों की ही सत्ता वास्तविक नहीं है (मायिक है), वही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥१५॥

 

एकाकी रमते नित्यं स्वभावगुणवर्जितम्।

ब्रह्मज्ञानरसास्वादी जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ १६ ॥

 

स्वभावसिद्ध गुणों से रहित होकर (ऊपर उठकर) जो एकान्त में मग्न रहता है, वह ब्रह्मज्ञान के रस का आनन्द लेनेवाला ही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥१६॥

 

हृदि ध्यानेन पश्यन्ति प्रकाशं क्रियते मनः ।

सोऽहं हंसेति पश्यन्ति जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ १७ ॥

 

जो साधक अपने हृदय में उस परमतत्त्व का 'सोऽहं-हंसः ' रूप से ध्यान करते हैं तथा अपने चित्त को उस से प्रकाशित करते हैं, वे जीवन्मुक्त कहे जाते हैं॥१७॥

 

शिवशक्तिसमात्मानं पिण्डब्रह्माण्डमेव च।

चिदाकाशं हृदं मोहं जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ १८ ॥

 

अपनी आत्मा को शिव - शक्तिरूप परमात्मतत्त्व जानकर और अपने शरीर तथा ब्रह्माण्ड को समान जानता हुआ जो हृदयस्थित मोह को चिदाकाश में विलीन कर देता है, वही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ १८ ॥

 

......शेष आगामी पोस्ट में

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से

 



4 टिप्‍पणियां:

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...