शनिवार, 1 जुलाई 2023

जीवन्मुक्तगीता (पोस्ट.. 03)

 

|| श्री परमात्मने नम: ||

 



कर्म सर्वत्र आदिष्टं न जानाति च किञ्चन ।

कर्म ब्रह्म विजानाति जीवन्मुक्तः स उच्यते॥९॥ 

 

शास्त्रविहित कर्म के अतिरिक्त जो अन्य कुछ नहीं जानता तथा कर्म को ब्रह्मस्वरूप जानता हुआ सम्पादित करता रहता है, वही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ ९

 

चिन्मयं व्यापितं सर्वमाकाशं जगदीश्वरम्

सहितं सर्वभूतानां जीवन्मुक्त: स  उच्यते ॥ १० ॥

 

सभी प्राणियों के हृदयाकाश में व्याप्त चिन्मय परमात्मतत्त्व को जो जानता है, वही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ १० ॥

 

अनादिवर्ती भूतानां जीवः शिवो न हन्यते ।

निर्वैरः सर्वभूतेषु जीवन्मुक्तः स उच्यते॥११॥

 

प्राणियों में स्थित शिवस्वरूप जीवात्मा अनादि है और इसका नाश नहीं हो सकता - ऐसा जानकर जो सभी प्राणियों के प्रति वैर- रहित हो जाता है, वही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ ११ ॥

 

आत्मा गुरुस्त्वं विश्वं च चिदाकाशो न लिप्यते ।

गतागतं द्वयोर्नास्ति जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ १२ ॥

 

आत्मा ही गुरुरूप और विश्वरूप है, इस चैतन्य आकाश को कुछ भी मलिन नहीं कर सकता । भूतकाल और वर्तमान दोनों ही काल के अंश होने से एक ही हैं, दो नहीं, जो ऐसा जानता है, वही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ १२ ॥

 

गर्भध्यानेन पश्यन्ति ज्ञानिनां मन उच्यते ।

सोऽहं मनो विलीयन्ते जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ १३ ॥

 

अन्तःध्यान के द्वारा जिसे ज्ञानीजन देख पाते हैं,वह 'मन' कहा जाता है । उस मन को सोऽहं ( वह परमतत्त्व मैं ही हूँ) - की भावना में जो विलीन कर लेता है, वही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ १३ ॥

 

......शेष आगामी पोस्ट में

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से

 

 



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