॥ ॐ
श्रीपरमात्मने नम:॥
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य
एव च।
नित्य: सर्वगत: स्थाणुरचलोऽयं सनातन:॥
२४॥
यह शरीरी काटा नहीं जा सकता, यह जलाया नहीं जा सकता, यह गीला नहीं किया जा सकता और यह
सुखाया भी नहीं जा सकता। कारण कि यह नित्य रहनेवाला, सबमें परिपूर्ण, अचल, स्थिर
स्वभाववाला और अनादि है।
व्याख्या—
जड़ वस्तु शरीरीमें कोई भी विकार
उत्पन्न नहीं कर सकती; क्योंकि
शरीरी स्वतः-स्वाभाविक निर्विकार है ।
निर्विकारता इसका स्वरूप है ।
शरीरी सर्वगत है, शरीरगत नहीं । जो चौरासी लाख
योनियोंसे होकर आया, वह
शरीरगत कैसे हो सकता है ? जो सर्वगत है, वह शरीरगत (एकदेशीय) नहीं हो सकता और जो शरीरगत है, वह सर्वगत नहीं हो सकता ।
ॐ
तत्सत् !
शेष आगामी
पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)
🪻🌾🌺जय श्री हरि: 🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय