गुरुवार, 21 मार्च 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) दूसरा अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

दूसरा अध्याय  (पोस्ट 02)

 

ब्रह्मादि देवों द्वारा गोलोकधाम का दर्शन

 

तदूर्ध्वं ददृशुर्देवा विरजायास्तटं शुभम् ।
तरं‍गितं क्षौम शुभ्रं सोपानैर्भास्करं परम् ॥१४॥
तं दृष्ट्वा प्रचलन्तस्ते तत्पुरं जग्मुरुत्तमम् ।
असं‍ख्यकोटिमार्तण्ड ज्योतिषां मण्डलं महत् ॥१५॥
दृष्ट्वा प्रताडिताक्षास्ते तेजसा धर्षिताः स्थिताः ।
नमस्कृत्वाऽथ तत्तेजो दध्यौ विष्ण्वाज्ञया विधिः ॥१६॥
तज्ज्योतिर्मण्डलेऽपश्यत्साकारं धाम शान्तिमत् ।
तस्मिन्महाद्‌भुतं दीर्घं मृणालधवलं परम् ।
सहस्रवदनं शेषं दृष्ट्वा नेमुः सुरास्ततः ॥१७॥
तस्योत्सं‍गे महालोको गोलोको लोकवन्दितः ।
यत्र कालः कलयतामीश्वरो धाममानिनाम् ॥१८॥
राजन्न प्रभवेन्माया मनश्चित्तं मतिर्ह्यहम् ।
न विकारो विशत्येव न महांश्च गुणाः कुतः ॥१९॥
तत्र कन्दर्पलावण्याः श्यामसुन्दरविग्रहाः ।
द्वारि गंतुं चाभ्युदिता न्यषेधन्कृष्णपार्षदाः ॥२०॥


श्रीदेवा ऊचुः -
लोकपाला वयं सर्वे ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।
श्रीकृष्णदर्शनार्थाय शक्राद्या आगता इह ॥२१॥


श्रीनारद उवाच -
तच्छ्रुत्वा तदभिप्रायं श्रीकृष्णाय सखीजनाः ।
ऊचुर्देवप्रतीहारा गत्वा चान्तःपुरं परम् ॥२२॥
तदा विनिर्गता काचिच्छतचन्द्रानना सखी ।
पीतांबरा वेत्रहस्ता सापृच्छद्वाञ्छितं सुरान् ॥२३॥


श्रीशतचन्द्राननोवाच -
कस्याण्डस्याधिपा देवा यूयं सर्वे समागताः ।
वदताशु गमिष्यामि तस्मै भगवते ह्यहम् ॥२४॥


श्रीदेवा ऊचुः -
अहो अण्डान्युतान्यानि नास्माभिर्दर्शितानि च ।
एकमण्डं प्रजानीमोऽथोऽपरं नास्ति नः शुभे ॥२५॥


श्रीशतचन्द्राननोवाच -
ब्रह्मदेव लुठन्तीह कोटिशो ह्यण्डराशयः ।
तेषां यूयं यथा देवास्तथाण्डेऽण्डे पृथक् पृथक् ॥२६॥
नामग्रामं न जानीथ कदा नात्र समागताः ।
जडबुद्ध्या प्रहृष्यध्वे गृहान्नापि विनिर्गताः ॥२७॥
ब्रह्माण्डमेकं जानन्ति यत्र जातास्तथा जनाः ।
मशका च यथान्तःस्था औदुंबरफलेषु वै ॥२८॥

वहीं ऊपर देवताओंने विरजानदी का सुन्दर तट देखा, जिससे विरजा की तरंगें टकरा रही थीं। वह तटप्रदेश उज्ज्वल रेशमी वस्त्रके समान शुभ्र दिखायी देता था । दिव्य मणिमय सोपानोंसे वह अत्यन्त उद्भासित हो रहा था। तटकी शोभा देखते और आगे बढ़ते हुए वे देवता उस उत्तम नगरमें पहुँचे, जो अनन्तकोटि सूर्योकी ज्योतिका महान् पुञ्ज जान पड़ता था । उसे देखकर देवताओंकी आँखें चौंधिया गयीं। वे उस तेजसे पराभूत हो जहाँ-के-तहाँ खड़े रह गये। तब भगवान् विष्णुकी आज्ञाके अनुसार उस तेजको प्रणाम करके ब्रह्माजी उसका ध्यान करने लगे। उसी ज्योतिके भीतर उन्होंने एक परम शान्तिमय साकार धाम देखा । उसमें परम अद्भुत, कमलनालके समान धवल-वर्ण हजार मुखवाले शेषनागका दर्शन करके सभी देवताओंने उन्हें प्रणाम किया । राजन् ! उन शेषनागकी गोदमें महान् आलोकमय लोकवन्दित गोलोकधामका दर्शन हुआ, जहाँ धामाभिमानी देवताओंके ईश्वर तथा गणनाशीलोंमें प्रधान कालका भी कोई वश नहीं चलता । वहाँ माया भी अपना प्रभाव नहीं डाल सकती । मन, चित्त, बुद्धि, अहंकार, सोलह विकार तथा महत्तत्त्व भी वहाँ प्रवेश नहीं कर सकते हैं; फिर तीनों गुणोंके विषयमें तो कहना ही क्या है ! वहाँ कामदेवके समान मनोहर रूप लावण्य- शालिनी, श्यामसुन्दरविग्रहा श्रीकृष्णपार्षदा द्वारपाल- का कार्य करती थीं। देवताओंको द्वारके भीतर जानेके लिये उद्यत देख उन्होंने मना किया ॥१४- २० ॥

तब देवता बोले- हम सभी ब्रह्मा, विष्णु, शंकर नामके लोकपाल और इन्द्र आदि देवता हैं । भगवान् श्रीकृष्णके दर्शनार्थ यहाँ आये हैं ॥ २१ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- देवताओंकी बात सुनकर उन सखियोंने, जो श्रीकृष्णकी द्वारपालिकाएँ थीं, अन्तःपुरमें जाकर देवताओंकी बात कह सुनायीं । तब एक सखी, जो शतचन्द्रानना नामसे विख्यात थी, जिसके वस्त्र पीले थे और जो हाथमें बेंतकी छड़ी लिये थी, बाहर आयी और उनसे उनका अभीष्ट प्रयोजन पूछा ॥ २२-२३ ।।

शतचन्द्रानना बोली- यहाँ पधारे हुए आप सब देवता किस ब्रह्माण्डके निवासी हैं, यह शीघ्र बताइये । तब मैं भगवान् श्रीकृष्णको सूचित करनेके लिये उनके पास जाऊँगी ॥ २४ ॥

देवताओंने कहा - अहो ! यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है, क्या अन्यान्य ब्रह्माण्ड भी हैं ? हमने तो उन्हें कभी नहीं देखा। शुभे ! हम तो यहीं जानते हैं कि एक ही ब्रह्माण्ड हैं, इसके अतिरिक्त दूसरा कोई है ही नहीं ॥ २५ ॥

शतचन्द्रानना बोली- ब्रह्मदेव ! यहाँ तो विरजा नदीमें करोड़ों ब्रह्माण्ड इधर-उधर लुढ़क रहे हैं। उनमें भी आप जैसे ही पृथक्-पृथक् देवता वास करते हैं। अरे ! क्या आपलोग अपना नाम-गाँवतक नहीं जानते ? जान पड़ता है—-कभी यहाँ आये नहीं हैं; अपनी थोड़ी सी जानकारीमें ही हर्षसे फूल उठे हैं। जान पड़ता है, कभी घर से बाहर निकले ही नहीं। जैसे गूलरके फलोंमें रहनेवाले कीड़े जिस फलमें रहते हैं, उसके सिवा दूसरेको नहीं जानते, उसी प्रकार आप जैसे साधारण जन जिसमें उत्पन्न होते हैं, एकमात्र उसीको 'ब्रह्माण्ड' समझते हैं ।। २६ - २८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



1 टिप्पणी:

  1. 🌺🍂🌹जय श्री हरि:🙏🙏
    ॐ श्री परमात्मने नमः
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    जय श्री राधे गोविंद

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