॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--छठा अध्याय..(पोस्ट ०४)
नारदजीके पूर्वचरित्रका शेष भाग
एवं यतन्तं विजने मामाहागोचरो गिराम् ।
गंभीरश्लक्ष्णया वाचा शुचः प्रशमयन्निव ॥ २१ ॥
हन्तास्मिन् जन्मनि भवान् मा मां द्रष्टुमिहार्हति ।
अविपक्वकषायाणां दुर्दर्शोऽहं कुयोगिनाम् ॥ २२ ॥
सकृद् यद् दर्शितं रूपं एतत्कामाय तेऽनघ ।
मत्कामः शनकैः साधु सर्वान् मुञ्चति हृच्छयान् ॥ २३ ॥
सत्सेवयाऽदीर्घया ते जाता मयि दृढा मतिः ।
हित्वावद्यमिमं लोकं गन्ता मज्जनतामसि ॥ २४ ॥
मतिर्मयि निबद्धेयं न विपद्येत कर्हिचित् ।
प्रजासर्गनिरोधेऽपि स्मृतिश्च मदनुग्रहात् ॥ २५ ॥
एतावदुक्त्वोपरराम तन्महद्
भूतं नभोलिङ्गमलिङ्गमीश्वरम् ।
अहं च तस्मै महतां महीयसे
शीर्ष्णावनामं विदधेऽनुकंपितः ॥ २६ ॥
नामान्यनन्तस्य हतत्रपः पठन्
गुह्यानि भद्राणि कृतानि च स्मरन् ।
गां पर्यटन् तुष्टमना गतस्पृहः
कालं प्रतीक्षन् विमदो विमत्सरः ॥ २७ ॥
(श्रीनारदजीने कहते हैं-) इस प्रकार निर्जन वन में (भगवान के उस स्वरूप के दर्शन का) मुझे प्रयत्न करते देख स्वयं भगवान् ने, जो वाणी के विषय नहीं हैं, बड़ी गंभीर और मधुर वाणी से मेरे शोक को शान्त करते हुए-से कहा— ॥ २१ ॥ ‘खेद है कि इस जन्ममें तुम मेरा दर्शन नहीं कर सकोगे। जिनकी वासनाएँ पूर्णतया शान्त नहीं हो गयीं हैं, उन अधकचरे योगियों को मेरा दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है ॥ २२ ॥ निष्पाप बालक ! तुम्हारे हृदयमें मुझे प्राप्त करनेकी लालसा जाग्रत् करनेके लिये ही मैंने एक बार तुम्हें अपने रूपकी झलक दिखायी है। मुझे प्राप्त करनेकी आकांक्षासे युक्त साधक धीरे-धीरे हृदयकी सम्पूर्ण वासनाओंका भलीभाँति त्याग कर देता है ॥ २३ ॥ अल्पकालीन संतसेवासे ही तुम्हारी चित्तवृत्ति मुझमें स्थिर हो गयी है। अब तुम इस प्राकृतमलिन शरीर को छोडक़र मेरे पार्षद हो जाओगे ॥ २४ ॥ मुझे प्राप्त करनेका तुम्हारा यह दृढ़ निश्चय कभी किसी प्रकार नहीं टूटेगा। समस्त सृष्टिका प्रलय हो जानेपर भी मेरी कृपासे तुम्हें मेरी स्मृति बनी रहेगी’ ॥ २५ ॥ आकाशके समान अव्यक्त सर्वशक्तिमान् महान् परमात्मा इतना कहकर चुप हो रहे। उनकी इस कृपाका अनुभव करके मैंने उन श्रेष्ठोंसे भी श्रेष्ठतर भगवान् को सिर झुकाकर प्रणाम किया ॥ २६ ॥ तभीसे मैं लज्जा-संकोच छोडक़र भगवान् के अत्यन्त रहस्यमय और मङ्गलमय मधुर नामों और लीलाओंका कीर्तन और स्मरण करने लगा। स्पृहा और मद-मत्सर मेरे हृदयसे पहले ही निवृत्त हो चुके थे, अब मैं आनन्दसे कालकी प्रतीक्षा करता हुआ पृथ्वीपर विचरने लगा ॥ २७ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
🪷💖🌷🪷जय श्री हरि:🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण