मंगलवार, 9 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) सातवाँ अध्याय (पोस्ट 04)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

सातवाँ अध्याय  (पोस्ट 04)

 

कंसकी दिग्विजय - शम्बर, व्योमासुर, बाणासुर, वत्सासुर, कालयवन तथा देवताओंकी पराजय

 

अंकुशास्फालनात् क्रुद्धं पातयन्तं पदैर्द्विषः ।
शुण्डादण्डस्य फूत्कारैर्मर्दयन्तमितस्ततः ॥४३॥
स्रवन्मदं चतुर्दन्तं हिमाद्रिमिव दुर्गमम् ।
नदन्तं शृङ्खलां शुण्डां चालयन्तं मुहुर्मुहुः ॥४४॥
घटाढ्यं किंकिणीजालरत्‍नकंबलमण्डितम् ।
गोमूत्रचयसिन्दूरकस्तूरीपत्रभृन्मुखम् ॥४५॥
दृढेन मुष्टिना कंसस्तं तताड महागजम् ।
द्वितीयमुष्टिना शक्रं स जघान रणाङ्गणे ॥४६॥
तस्य मुष्टिप्रहारेण दूरे शक्रः पपात ह ।
जानुभ्यां धरणीं स्पृष्ट्वा गजोऽपि विह्वलोऽभवत् ॥४७॥
पुनरुत्थाय नागेन्द्रो दन्तैश्चाहत्य दैत्यपम् ।
शुण्डादण्डेन चोद्‌धृत्य चिक्षेप लक्षयोजनम् ॥४८॥
पतितोऽपि स वज्रांगः किंचिद्‌व्याकुलमानसः ।
स्फुरदोष्ठोऽतिरुष्टाङ्गो युद्धभूमिं समाययौ ॥४९॥
कंसो गृहीत्वा नागेन्द्रं संनिपात्य रणांगणे ।
निष्पीड्य शूण्डां तस्यापि दन्तांश्चूर्णीचकार ह ॥५०॥
अथ चैरावतो नागो दुद्रावाशु रणाङ्गणात् ।
निपातयन्महावीरान् देवधानीं पुरीं गतः ॥५१॥
गृहीत्वा वैष्णवं चापं सज्जं कृत्वाथ दैत्यराट् ।
देवान्विद्रायामास बाणौघैश्च धनुःस्वनैः ॥५२॥
ततः सुरास्तेन निहन्यमाना
विदुद्रुवुर्लीनधियो दिशान्ते ।
केचिद्‌रणे मुक्तशिखा बभूवु-
र्भीताः स्म इत्थं युधि वादिनस्ते ॥५३॥
केचित्तथा प्रांजलयोऽतिदीनव-
त्संन्यस्तशस्त्रा युधि मुक्तकच्छाः ।
स्थातुं रणे कंसनृदेवसंमुखे
गतेप्सिताः केचिदतीव विह्वलाः ॥५४॥
इत्थं स देवान्प्रगतान्निरीक्ष्य तान्
नीत्वा च सिंहासनमातपत्रवत् ।
सर्वैस्तदा दैत्यगणैर्जनाधिपः
स्वराजधानीं मथुरां समाययौ ॥५५॥

अङ्कुश की मार से कुपित हुआ वह गजराज शत्रुओंको अपने पैरोंसे मार-मारकर युद्धभूमिमें गिराने लगा। वह अपनी सूंड से निकले फूत्कारों से उनका मर्दन कर रहा था | झरते हुए मदजल तथा चार दांतों वाले हिमालय के समान दुर्गम उस गजराज की लौह श्रृंखलाएं झंकार कर रही थीं तथा वह बार-बार अपनी सूंड को घुमा रहा था | उसके गलेमें घंटे बँधे हुए थे, वह किङ्किणीजाल तथा रत्नमय कम्बलसे मण्डित था । गोरोचन, सिन्दूर और कस्तूरीसे उसके मुख-मण्डलपर पत्ररचना की गयी थी। कंस ने निकट आनेपर उस महान् गजराजके ऊपर सुदृढ़ मुक्केसे प्रहार किया। साथ ही उसने समराङ्गणमें देवराज इन्द्रपर भी दूसरे मुक्का प्रहार किया। उसके मुक्केकी मार खाकर इन्द्र ऐरावतसे दूर जा गिरे। ऐरावत भी धरतीपर घुटने टेककर व्याकुल हो गया। फिर तुरंत ही उठकर गजराजने दैत्यराज कंसपर दाँतोंसे आघात किया और उसे सूँड़पर उठाकर कई लाख योजन दूर फेंक दिया। कंसका शरीर वज्रके समान सुदृढ़ था । वह उतनी दूरसे गिरनेपर भी घायल नहीं हुआ। उसके मनमें किंचित् व्याकुलता हुई; किंतु रोषसे ओठ फड़फड़ाता अत्यन्त जोशमें भरकर वह पुनः युद्धभूमिमें जा पहुँचा ॥ कंस ने नागराज ऐरावतको पकड़कर समराङ्गणमें धराशायी कर दिया और उसकी सूँड़ मरोड़कर उसके दाँतोंको चूर-चूर कर दिया ॥ ४३-५० ॥

अब तो ऐरावत हाथी उस समराङ्गण से तत्काल भाग चला। वह बड़े-बड़े वीरोंको गिराता हुआ देवताओंकी राजधानी अमरावती पुरीमें जा घुसा । तदनन्तर दैत्यराज कंस ने वैष्णव धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ाकर बाण-समूहों तथा धनुषकी टंकारोंसे देवताओंको खदेड़ना आरम्भ किया। कंसकी मार पड़नेसे देवताओं के होश उड़ गये और वे चारों दिशाओंमें भाग निकले। कुछ देवताओंने रणभूमिमें अपनी शिखाएँ खोल दीं और 'हम डरे हुए हैं (हमें न मारो ) ' – इस प्रकार कहने लगे ॥ ५१-५३ ॥

कुछ लोग हाथ जोड़कर अत्यन्त दीन की भाँति खड़े हो गये और अस्त्र-शस्त्र नीचे डालकर उन्होंने अपने अधोवस्त्र की लाँग भी खोल डाली। कुछ लोग अत्यन्त व्याकुल हो युद्धस्थलमें राजा कंसके सम्मुख खड़े होने तक का साहस न कर सके। इस प्रकार देवताओंको भगा हुआ देख वहाँके छत्र-युक्त सिंहासनको साथ लेकर नरेश्वर कंस समस्त दैत्योंके साथ अपनी राजधानी मथुराको लौट आया ॥ ५४-५५ ॥

                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                               इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'कंसकी दिग्विजय' नामक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



1 टिप्पणी:

  1. 🌺💟🥀🌺जय श्री हरि:🙏🙏
    ॐ श्री परमात्मने नमः
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    नारायण नारायण नारायण नारायण

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