श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
सत्रहवाँ अध्याय (पोस्ट
01)
श्रीकृष्ण की बाल
लीला में दधि-चोरी का वर्णन
श्रीनारद उवाच -
अथ बालौ कृष्णरामौ गौरश्यामौ मनोहरौ ।
लीलया चक्रतुरलं सुंदरं नंदमंदिरम् ॥ १ ॥
रिंगमाणौ च जानुभ्यां पाणिभ्यां सह मैथिल ।
व्रजताल्पेन कालेन ब्रुवंतौ मधुरं व्रजे ॥ २ ॥
यशोदया च रोहिण्या लालितौ पोषितौ शिशू ।
कदा विनिर्गतावङ्कात्क्वचिदङ्कं समास्थितौ ॥ ३ ॥
मंजीरकिंकिणीरावं कुर्वंतौ तावितस्ततः ।
त्रिलोकीं मोहयंतौ द्वौ मायाबालकविग्रहौ ॥ ४ ॥
क्रीडन्तमादाय शिशुं यशोदा-
जिरे लुठंतं व्रजबालकैश्च ।
तद्धूलिलेपावृतधूसरांगं
चक्रे ह्यलं प्रोक्षणमादरेण ॥ ५ ॥
जानुद्वयाभ्यां च समं कराभ्यां
पुनर्व्रजन्प्रांगणमेत्य कृष्णः ।
मात्रंकदेशे पुनराव्रजन्सन्
बभौ व्रजे केसरिबाललीलः ।
तं सर्वतो हैमनचित्रयुक्तं
पीतांबरं कंचुकमादधानम् ।
स्फुरत्प्रभं रत्नमयं च मौलिं
दृष्ट्वा सुतं प्राप मुदं यशोदा ॥ ७
॥
बालं मुकुंदमतिसुंदरबालकेलिं
दृष्ट्वा परं मुदमवापुरतीव गोप्यः ।
श्रीनंदराजव्रजमेत्य गृहं विहाय
सर्वास्तु विस्मृतगृहाः
सुखविग्रहास्ताः ॥ ८ ॥
श्रीनंदराजगृहकृत्रिमसिंहरूपं
दृष्ट्वा व्रजन्प्रतिरवन्नृप
भीरुवद्यः ।
नीत्वा च तं निजसुतं गृहमाव्रजंतीं
गोप्यो व्रजे सघृणया ह्यवदन् यशोदाम्
॥ ९ ॥
गोप्य ऊचुः -
क्रीडार्थं चपलं ह्येनं मा बहिः कारयांगणात् ।
बालकेलिं दुग्धमुखं काकपक्षधरं शुभे ॥ १० ॥
ऊर्ध्वदंतद्वयं जातं पूर्वं मातुलदोषदम् ।
अस्यापि मातुलो नास्ति ते सुतस्य यशोमति ॥ ११ ॥
तस्माद्दानं तु कर्तव्यं विघ्नानां नाशहेतवे ।
गोविप्रसुरसाधूनां छंदसां पूजनं तथा ॥ १२ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं— राजन् ! तदनन्तर बलराम और श्रीकृष्ण — दोनों गौरश्याम मनोहर बालक विविध
लीलाओंसे नन्दभवनको अत्यन्त सुन्दर एवं आकर्षक बनाने लगे। मिथिलेश्वर ! वे दोनों
हाथों और घुटनोंके बलसे चलते हुए और मीठी - तोतली बोली बोलते हुए थोड़े ही समय में
व्रज में इधर-उधर डोलने लगे । माता यशोदा और रोहिणी के द्वारा लालित-पालित वे
दोनों शिशु, कभी माताओं की गोद से निकल जाते
और कभी पुनः उनके अङ्क में आ बैठते थे ।
मायासे
बालरूप धारण करके त्रिभुवन को मोहित करनेवाले वे दोनों भाई,
राम और श्याम, इधर-उधर मञ्जीर और करधनी की
झंकार फैलाते फिरते थे। माता यशोदा व्रज- बालकोंके साथ आँगनमें खेलते-लोटते तथा
धूल लग जानेसे धूसर अङ्गवाले अपने लालाकी गोदमें लेकर बड़े आदरसे झाड़ती- पोंछती
थीं ।। १-५ ॥
श्रीकृष्ण
दोनों हाथों और घुटनोंके बल चलते हुए पुनः आँगनमें चले जाते और वहाँसे फिर माताकी
गोदमें आ जाते थे। इस तरह वे व्रजमें सिंह शावक की भाँति लीला कर रहे थे। माता
यशोदा उन्हें सोनेके तार जड़े पीताम्बर और पीली झगुली पहनाती तथा मस्तक- पर
दीप्तिमान् रत्नमय मुकुट धारण कराती और इस प्रकार अत्यन्त शोभाशाली भव्यरूपमें
उन्हें देखकर अत्यन्त आनन्दका अनुभव करती थीं। अत्यन्त सुन्दर बालोचित क्रीड़ामें
तत्पर बालमुकुन्दका दर्शन करके गोपियाँ बड़ा सुख पाती थीं। वे सुखस्वरूपा
गोपाङ्गनाएँ अपना घर छोड़कर नन्दराजके गोष्ठमें आ जातीं और वहाँ आकर वे सब की सब
अपने घरोंकी सुध-बुध भूल जाती थीं ।। ६-८ ॥
राजन्
! नन्दरायजीके गृह-द्वारपर कृत्रिम सिंहकी मूर्ति देखकर भयभीतकी तरह जब
श्रीकृष्ण
पीछे लौट पड़ते, तब यशोदाजी अपने लालाको गोदमें
उठाकर घरके भीतर चली जाती थीं । उस समय गोपियाँ व्रजमें दयासे द्रवित हृदय हो
यशोदाजीसे इस प्रकार कहती थीं ॥ ९ ॥
श्रीगोपाङ्गनाएँ
कहने लगीं- शुभे ! तुम्हारा लाला खेलनेके लिये बड़ी चपलता दिखाता है। इसकी बालकेलि
अत्यन्त मनोहर है। ऐसा न हो कि इसे किसीकी नजर लग जाय । अतः तुम इस काक- पक्षधारी
दुधमुँहे बालकको आँगनसे बाहर मत निकलने दिया करो। देखो न,
इसके ऊपरके दो दाँत ही पहले निकले हैं, जो
मामाके लिये दोषकारक हैं। यशोदाजी ! तुम्हारे इस बालकके भी कोई मामा नहीं है,
इसलिये विघ्ननिवारण के हेतु तुम्हें दान करना चाहिये। गौ, ब्राह्मण, देवता, साधु,
महात्मा तथा वेदों की पूजा करनी चाहिये । १० - १२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
अनंत कोटि ब्रह्मांड के स्वामी हे त्रिभुवन को अपनी बाल लीला से
जवाब देंहटाएंमोहित करने वाले बाल मुकुंद कृष्ण गोविंद रूप में सहस्त्रों सहस्त्रों कोटिश: चरण वंदन
🌹💖🌺🥀जय श्री हरि:🙏
नारायण नारायण नारायण नारायण