शुक्रवार, 31 मई 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सोलहवां अध्याय..(पोस्ट..०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध-सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०६)

परीक्षित्‌ की दिग्विजय 
तथा धर्म और पृथ्वी का संवाद

ब्रह्मादयो बहुतिथं यदपांगमोक्ष 
कामास्तपः समचरन् भगवत्प्रपन्नाः ।
सा श्रीः स्ववासमरविन्दवनं विहाय 
यत्पादसौभगमलं भजतेऽनुरक्ता ॥३२॥
तस्याहमब्जकुलिशांकुशकेतुकेतैः 
श्रीमत्पदैर्भगवतः समलंकृतांगी ।
त्रीनत्यरोच उपलभ्य ततो विभूतिं 
लोकान् स मां व्यसृजदुत्स्मयंतीं तदन्ते ॥३३॥
यो वै ममातिभरमासुरवंशराज्ञा- 
मक्षौहिणीशतमपानुददात्मतन्त्रः ।
त्वां दुःस्थमूनपदमात्मनि पौरुषेण 
सम्पादयन् यदुषु रम्यमबिभ्रदंगम् ॥३४॥
का वा सहेत विरहं पुरुषोत्तमस्य 
प्रमावलोकरुचिरस्मितवल्गुजल्पैः ।
स्थैर्यं समानमहरन्मधुमानिनीनां 
रोमोत्सवो मम यदंघ्रिविटंकितायाः ॥३५॥
पयोरेवं कथयतोः पृथिवीधर्मयोस्तदा ।
परिक्षिन्नाम राजर्षिः प्राप्तः प्राचीं सरस्वतीम् ‍ ॥३६॥

 (पृथ्वी धर्म से कहरही है) जिनका कृपाकटाक्ष प्राप्त करनेके लिये ब्रह्मा आदि देवता भगवान्‌ के शरणागत होकर बहुत दिनों तक तपस्या करते रहे, वही लक्ष्मी जी अपने निवासस्थान कमलवनका परित्याग करके बड़े प्रेमसे जिनके चरणकमलोंकी सुभग छत्रछायाका सेवन करती हैं, उन्हीं भगवान्‌के कमल, वज्र, अङ्कुश, ध्वजा आदि चिह्नोंसे युक्त श्रीचरणोंसे विभूषित होनेके कारण मुझे महान् वैभव प्राप्त हुआ था और मेरी तीनों लोकोंसे बढक़र शोभा हुई थी; परन्तु मेरे सौभाग्यका अब अन्त हो गया ! भगवान्‌ने मुझ अभागिनीको छोड़ दिया। मालूम होता है मुझे अपने सौभाग्यपर गर्व हो गया था, इसीलिये उन्होंने मुझे यह दण्ड दिया है ॥ ३२-३३ ॥
तुम अपने तीन चरणोंके कम हो जानेसे मन-ही-मन कुढ़ रहे थे; अत: अपने पुरुषार्थसे तुम्हें अपने ही अन्दर पुन: सब अङ्गों से पूर्ण एवं स्वस्थ कर देने के लिये वे अत्यन्त रमणीय श्यामसुन्दर विग्रहसे यदुवंश में प्रकट हुए और मेरे बड़े भारी भार को, जो असुरवंशी राजाओं की सैंकड़ों अक्षौहिणियों के रूप में था, नष्ट कर डाला। क्योंकि वे परम स्वतन्त्र थे ॥ ३४ ॥ जिन्होंने अपनी प्रेमभरी चितवन, मनोहर मुसकान और मीठी-मीठी बातों से सत्यभामा आदि मधुमयी मानिनियों के मान के साथ धीरज को भी छीन लिया था और जिनके चरण-कमलोंके स्पर्शसे मैं निरन्तर आनन्दसे पुलकित रहती थी, उन पुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीकृष्णका विरह भला कौन सह सकती है ॥ ३५ ॥
धर्म और पृथ्वी इस प्रकार आपसमें बातचीत कर ही रहे थे कि उसी समय राजर्षि परीक्षित्‌ पूर्ववाहिनी सरस्वतीके तटपर आ पहुँचे ॥ ३६ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्या संहितायां प्रथमस्कन्धे पृथ्वीधर्मसंवादो नाम षोडशोऽध्यायः ॥१६॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


1 टिप्पणी:

  1. श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
    हे नाथ नारायण वासुदेव
    ॐ श्री परमात्मने नमः
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    हे गोविंद हे गोपाल हे करुणामय दीन दयाल हे कृष्ण हे दामोदर हे माधव‼️🙏🙏🌹🌺💖🍂🙏🙏नारायण नारायण नारायण नारायण

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