मंगलवार, 25 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) सातवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

सातवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )

 

ब्रह्माजी के द्वारा गौओं, गोवत्सों एवं गोप-बालकों का हरण

 

अथान्यच्छ्रुणु राजेन्द्र श्रीकृष्णस्य महात्मनः ।
कौमारे क्रीडनश्चेदं पौगण्डे कीर्तनं यथा ॥ १ ॥
श्रीकृष्णोऽघमुखान्मृत्यो रक्षित्वा वत्सवत्सपान् ।
यमुनापुलिनं गत्वा प्राहेदं हर्षवर्धनम् ॥ २ ॥
अहोऽतिरम्यं पुलिनं प्रियं कोमलवालुकम् ।
शरत्प्रफुल्लपद्मानां परागैः परिपूरितम् ॥ ३ ॥
वायुना त्रिविधाख्येन सुगन्धेन सुगन्धितम् ।
मधुपध्वनिसंयुक्तं कुंजद्रुमलताकुलम् ॥ ४ ॥
अत्रोपविश्य गोपाला दिनैकप्रहरे गते ।
भोजनस्यापि समयं तस्मात्कुरुत भोजनम् ॥ ५ ॥
अत्र भोजनयोग्या भूर्दृश्यते मृदुवालुका ।
वत्सकाः सलिलं पीत्वा ते चरिष्यन्ति शाद्‌वलम् ॥ ६ ॥
इति कृष्णवचः श्रुत्वा तथेत्याहुश्च बालकाः ।
प्रकर्तुं भोजनं सर्वे ह्युपविष्टाः सरित्तटे ॥ ७ ॥
अथ केचित्बालकाश्च येषां पार्श्वे न भोजनम् ।
ते तु कृष्णस्य कर्णान्तेजगदुर्दीनया गिरा ॥ ८ ॥
वयं तु किं करिष्यामोऽस्मत्पार्श्वे न तु भोजनम् ।
नन्दग्रामन्तु दूरं हि गच्छामो वत्सकैर्वयम् ॥ ९ ॥
इति श्रुत्वा हरिः प्राह मा शोकं कुरुत प्रियाः ।
अहं दास्यामि सर्वेषां प्रयत्‍नेनापि भोजनम् ॥ १० ॥
तस्मान्मद्‌वाक्यनिरताः सर्वे भवत बालकाः ।
इति कृष्णस्य वचनात्कृष्णपार्श्वे च ते स्थिताः ।
मुक्त्वा शिक्यानि सर्वेऽन्ये बुभुजुः कृष्णसंयुताः ॥ ११ ॥
चकार कृष्णः किल राजमंडलीं
     गोपालबालैः पुरतः प्रपूरितैः ।
अनेकवर्णैर्वसनैः प्रकल्पितै-
     र्मध्ये स्थितो पीतपटेन भूषितं ॥ १२ ॥
रेजे ततः सो वरगोपदारकै-
     र्यथामरेशो ह्यमरैश्च सर्वतः ।
पुनर्यथाम्भोरुहकोमलै-
     र्मध्ये तु वैदेह सुवर्णकर्णिका ॥ १३ ॥
कुसुमैरङ्कुरैः केचित्पल्लवैश्च दलैः फलैः ।
कृष्णस्तु कवलं भुक्त्वा सर्वान् पश्यन्निदं जगौ ॥ १५ ॥
अन्यान्निदर्शयन् स्वादु नाहं जानामि वै सखे ।
तथेत्युक्त्वा स बालश्च नीत्वाऽन्यान् कवलान् ददौ ॥ १६ ॥
भुक्त्वा ते कथयामासुः प्रहसन्तः परस्परम् ।
पुनस्तत्रापि सुबलो हरये कवलं ददौ ॥ १७ ॥
कृष्णस्तु कवलं किंचिद्‌भुक्त्वा तत्र जहास ह ।
ये भुक्तकवला बालास्ते सर्वे जहसुः स्फुटम् ॥ १८ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजेन्द्र ! अब भगवान् श्रीकृष्ण की अन्य लीला सुनिये। यह लीला उनके बाल्यकाल की है, तथापि उनके पौगण्डावस्था की प्राप्तिके बाद प्रकाशित हुई। श्रीकृष्ण गोवत्स एवं गोप-बालकों की मृत्युके समान (भयंकर) अघासुरके मुखसे रक्षा करनेके उपरान्त उनका आनन्द बढ़ाने की इच्छा से यमुनातटपर जाकर बोले— 'प्रिय सखाओ! अहा, यह कोमल वालुकामय तट बहुत ही सुन्दर है ! शरद् ऋतुमें खिले हुए कमलोंके परागसे पूर्ण है ।। १-३ ॥

 

शीतल, मन्द एवं सुगन्धित - त्रिविध वायुसे सौरभित है। यह तटभूमि भौंरों की गुञ्जार से युक्त एवं कुञ्ज और वृक्षलताओं से सुशोभित है । गोप-बालको ! दिनका एक पहर बीत गया है। भोजन का समय भी हो गया है । अतएव इस स्थान पर बैठकर भोजन कर लो ।। ४-५ ॥

 

कोमल वालुकावाली यह भूमि भोजन करने के उपयुक्त दीख रही है। बछड़े भी यहाँ जल पीकर हरी-हरी घास चरते रहेंगे।' गोप-बालकों ने श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर कहा— 'ऐसा ही हो' और वे सब-के-सब भोजन करनेके लिये यमुनातटपर बैठ गये ।। ६-७ ॥

 

इसके उपरान्त जिनके पास भोजन-सामग्री नहीं थी, उन बालकों ने श्रीकृष्ण के कान में दीन-वाणी से कहा- 'हमलोगों के पास भोजन के लिये कुछ नहीं है, हम लोग क्या करें ? नन्दगाँव यहाँसे बहुत दूर है, अतः हमलोग बछड़ों को लेकर चले जाते हैं।' यह सुनकर श्रीकृष्ण बोले- 'प्रिय सखाओ ! शोक मत करो। मैं सबको यत्नपूर्वक (आग्रहके साथ) भोजन कराऊँगा । इसलिये तुम सब मेरी बातपर भरोसा करके निश्चिन्त हो जाओ।' श्रीकृष्ण की यह उक्ति सुनकर वे लोग उनके निकट ही बैठ गये। अन्य बालक (अपने-अपने) छीकों को खोलकर श्रीकृष्ण के साथ भोजन करने लगे ॥ ८- ११ ॥

 

श्रीकृष्ण ने गोप-बालकों के साथ, जिनकी उनके सामने भीड़ लगी हुई थी, एक राजसभा का आयोजन किया। समस्त गोप-बालक उनको घेरकर बैठ गये । ये लोग अनेक रंगोंके वस्त्र पहने हुए थे और श्रीकृष्ण पीला वस्त्र धारण करके उनके बीचमें बैठ गये । विदेह ! उस समय गोप-बालकोंसे घिरे हुए श्रीकृष्णकी शोभा देवताओंसे घिरे हुए देवराज इन्द्रके समान अथवा पँखुड़ियोंसे घिरी हुई स्वर्णिम कमलकी कर्णिका (केसरयुक्त भीतरी भाग) के समान हो रही थी ।। १२-१३ ॥

 

कोई बालक कुसुमों, कोई अङ्कुरों, कोई पल्लवों, कोई पत्तों, कोई फलों, कोई अपने हाथों, कोई पत्थरों और कोई छीकों को ही पात्र बनाकर भोजन करने लगे। उनमेंसे एक बालकने शीघ्रतासे कौर उठाकर श्रीकृष्ण- के मुखमें दे दिया। श्रीकृष्णने भी उस ग्रासका भोग लगाकर सबकी ओर देखते हुए कहा- 'भैया ! अन्य बालकोंको अपनी-अपनी स्वादिष्ट सामग्री चखाओ। मैं स्वादके बारेमें नहीं जानता।' बालकोंने 'ऐसा ही हो' कहकर अन्यान्य बालकों को भोजन के ग्रास ले जाकर दिये। वे भी उन ग्रासोंको खाकर एक दूसरेकी हँसी करते हुए उसी प्रकार बोल उठे। सुबलने पुनः हरिके मुखमें ग्रास दिया, परंतु श्रीकृष्ण उस कौर में से थोड़ा-सा खाकर हँसने लगे। इस प्रकार जिस-जिसने कौर खाया, वे सभी जोरसे हँसने लगे ।। १४-१८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



1 टिप्पणी:

  1. 🌺💟🍂🌹जय श्री हरि:🙏🙏
    ॐ श्री परमात्मने नमः
    श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
    हे नाथ नारायण वासुदेव
    हे लीलाधर हे बृज नंदन मुरली मनोहर अद्भुत है हर लीला तुम्हारी
    नारायण नारायण नारायण नारायण

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