॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध- उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०६)
परीक्षित्का अनशनव्रत और शुकदेवजीका आगमन
तत्राभवद् भगवान् व्यासपुत्रो
यदृच्छया गामटमानोऽनपेक्षः ।
अलक्ष्यलिङ्गो निजलाभतुष्टो
वृतश्च बालैरवधूतवेषः ॥ २५ ॥
तं द्व्यष्टवर्षं सुकुमारपाद
करोरुबाह्वंसकपोलगात्रम् ।
चार्वायताक्षोन्नसतुल्यकर्ण
सुभ्रवाननं कम्बुसुजातकण्ठम् ॥ २६ ॥
निगूढजत्रुं पृथुतुङ्गवक्षसं
आवर्तनाभिं वलिवल्गूदरं च ।
दिगम्बरं वक्त्रविकीर्णकेशं
प्रलम्बबाहुं स्वमरोत्तमाभम् ॥ २७ ॥
श्यामं सदापीच्यवयोऽङ्गलक्ष्म्या
स्त्रीणां मनोज्ञं रुचिरस्मितेन ।
प्रत्युत्थितास्ते मुनयः स्वासनेभ्यः
तल्लक्षणज्ञा अपि गूढवर्चसम् ॥ २८ ॥
उसी समय पृथ्वीपर स्वेच्छासे विचरण करते हुए, किसीकी कोई अपेक्षा न रखनेवाले व्यासनन्दन भगवान् श्रीशुकदेवजी महाराज वहाँ प्रकट हो गये। वे वर्ण अथवा आश्रमके बाह्य चिह्नोंसे रहित एवं आत्मानुभूतिमें सन्तुष्ट थे। बच्चों और स्त्रियोंने उन्हें घेर रखा था। उनका वेष अवधूतका था ॥ २५ ॥ सोलह वर्षकी अवस्था थी। चरण, हाथ, जङ्घा, भुजाएँ, कंधे, कपोल और अन्य सब अङ्ग अत्यन्त सुकुमार थे। नेत्र बड़े-बड़े और मनोहर थे। नासिका कुछ ऊँची थी। कान बराबर थे। सुन्दर भौंहें थीं, इनसे मुख बड़ा ही शोभायमान हो रहा था। गला तो मानो सुन्दर शङ्ख ही था ॥ २६ ॥ हँसली ढकी हुई, छाती चौड़ी और उभरी हुई, नाभि भँवरके समान गहरी तथा उदर बड़ा ही सुन्दर, त्रिवलीसे युक्त था। लंबी-लंबी भुजाएँ थीं, मुखपर घुँघराले बाल बिखरे हुए थे। इस दिगम्बर वेषमें वे श्रेष्ठ देवताके समान तेजस्वी जान पड़ते थे ॥ २७ ॥ श्याम रंग था। चित्तको चुरानेवाली भरी जवानी थी। वे शरीरकी छटा और मधुर मुसकानसे स्त्रियोंको सदा ही मनोहर जान पड़ते थे। यद्यपि उन्होंने अपने तेजको छिपा रखा था, फिर भी उनके लक्षण जाननेवाले मुनियोंने उन्हें पहचान लिया और वे सब-के-सब अपने-अपने आसन छोडक़र उनके सम्मानके लिये उठ खड़े हुए ॥ २८ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
जवाब देंहटाएंहे नाथ नारायण वासुदेव
व्यास नंदन भगवान शुकदेव जी
महाराज को सहस्त्रों सहस्त्रों कोटिश:वंदन🌸🌿🌺🙏🙏
‼️🙏जय श्री हरि:‼️🙏🪷💟🌷🪷