# श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
( श्रीवृन्दावनखण्ड
)
छठा अध्याय ( पोस्ट 02 )
अघासुर का उद्धार और
उसके पूर्वजन्म का परिचय
कोऽयं
दैत्यः पूर्वकाले श्रीकृष्णे लीनतां गतः ।
अहो वैरानुबन्धेन शीघ्रं दैत्यो हरिं गतः ॥ ९ ॥
श्रीनारद उवाच -
शंखासुरसुतो राजन् अघो नाम महाबलः ।
युवातिसुन्दरः साक्षात् कामदेव इवापरः ॥ १० ॥
अष्टावक्रं मुनिं यान्तं विरूपं मलयाचले ।
दृष्ट्वा जहास तमघः कुरूपोऽयमिति ब्रुवन् ॥ ११ ॥
तं शशाप महादुष्टं त्वं सर्पो भव दुर्मते ।
कुरूपो वक्रगा जातिः सर्पाणां भूमिमंडले ॥ १२ ॥
तत्पादयोर्निपतितं दैत्यं दीनं गतस्मयम् ।
दृष्ट्वा प्रसन्नः स मुनिर्वरं तस्मै ददौ पुनः ॥ १३ ॥
अष्टावक्र उवाच -
कोटिकन्दर्पलावण्यः श्रीकृष्णस्तु तवोदरे ।
यदाऽऽगच्छेत्सर्परूपात्तदा मुक्तिर्भविष्यति ॥ १४ ॥
राजा
बोले- देवर्षे ! यह दैत्य पूर्वकालमें कौन जो इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णमें विलीन
हुआ ?
अहो ! कितने आश्चर्यकी बात है कि वह दैत्य वैर बाँधनेके कारण शीघ्र
ही श्रीहरिको प्राप्त हुआ ॥ ९ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! शङ्खासुर के एक पुत्र था, जो 'अघ' नामसे विख्यात था। महाबली अघ युवावस्थामें
अत्यन्त सुन्दर होनेके कारण साक्षात् दूसरे कामदेव सा जान पड़ता था। एक दिन
मलयाचलपर जाते हुए अष्टावक्र मुनिको देखकर अघासुर जोर- जोर से हँसने लगा और बोला- 'यह कैसा कुरूप है !' ।। १०-११॥
उस
महादुष्टको शाप देते हुए मुनिने कहा— 'दुर्मते
! तू सर्प हो जा; क्योंकि भूमण्डलपर सर्पों की ही जाति कुरूप
एवं कुटिल गतिसे चलनेवाली होती है।' ज्यों- ही उसने यह सुना,
उस दैत्यका सारा अभिमान गल गया और वह दीनभावसे मुनिके चरणोंमें गिर
पड़ा। उसे इस अवस्थामें देखकर मुनि प्रसन्न हो गये और पुनः उसे वर देते हुए बोले-
॥ १२ - १३॥
अष्टावक्र
ने कहा -करोड़ों कंदर्पोंसे भी अधिक लावण्यशाली भगवान् श्रीकृष्ण जब तुम्हारे
उदरमें प्रवेश करेंगे, तब इस सर्परूपसे
तुम्हें छुटकारा मिल जायगा ॥ १४ ॥
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'अघासुरका मोक्ष' नामक छठा अध्याय पूरा हुआ ॥ ६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
🪷🌷🥀🪷जय श्री हरि:🙏🙏
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