गुरुवार, 6 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पहला अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

पहला अध्याय (पोस्ट 02)

 

सन्नन्दका गोपों को महावन से वृन्दावन में चलने की सम्मति देना और व्रजमण्डल के सर्वाधिक माहात्म्य का वर्णन करना

 

वैकुंठान्नापरो लोको न भूतो न भविष्यति ।
एकं वृंदावनं नाम वैकुंठाच्च परात्परम् ॥ १५ ॥
यत्र गोवर्धनो नाम गिरिराजो विराजते ।
कालिन्दीनिकटे यत्र पुलिनं मंगलायनम् ॥ १६ ॥
बृहत्सानुर्गिरिर्यत्र यत्र नन्दीश्वरो गिरिः ।
क्रोशानां च चतुर्विंशद्‌विस्तृतैः काननैर्वृतम् ॥ १७ ॥
पशव्यं गोपगोपीनां गवां सेव्यं मनोहरम् ।
लताकुंजावृतं तद्वै वनं वृंदावनं स्मृतम् ॥ १८ ॥


नंद उवाच -
कदा व्रजोऽयं सन्नंद तीर्थराजेन पूजितः ।
एतद्वेदितुमिच्छामि परं कौतुहलं हि मे ॥ १९ ॥


सन्नंद उवाच -
शंखासुरो महादैत्यः पुरा नैमित्तिके लये ।
स्वपतो ब्रह्मणः सोऽपि वेदध्रुग्दैत्यपुंगवः ॥ २० ॥
जित्वा देवान् ब्रह्मलोकाद्धृत्वा वेदान् गतोऽर्णवे ।
गतेषु तेषु वेदेषु देवानां च गतं बलम् ॥ २१ ॥
तदा साक्षाद्धरिः पूर्णो धृत्वा मात्स्यं वपुः पुरम् ।
नैमित्तिकलयांभोधौ युयुधे तेन यज्ञराट् ॥ २२ ॥

वैकुण्ठ से बढ़कर दूसरा कोई लोक न तो हुआ है और न आगे होगा। केवल एक 'वृन्दावन' ही ऐसा है, जो वैकुण्ठ की अपेक्षा भी परात्पर (परम उत्कृष्ट) है । जहाँ 'गोवर्धन' नाम से प्रसिद्ध गिरिराज विराजमान है, जहाँ कालिन्दी के तटपर मङ्गलधाम पुलिन है, जहाँ बृहत्सानु (बरसाना) पर्वत है तथा जहाँ नन्दीश्वर गिरि शोभा पाता है, जो चौबीस कोस के विस्तार में स्थित तथा विशाल काननोंसे आवृत है; जो पशुओंके लिये हितकर, गोप-गोपी और गौओंके लिये सेवन करनेयोग्य तथा लताकुज्जोंसे आवृत है, उस मनोहर बनको 'वृन्दावन' के नामसे स्मरण किया जाता है ।। १५ - १८ ॥

 

नन्दजीने पूछा – सन्नन्दजी ! तीर्थराज प्रयागने कब इस व्रज की पूजा की है, मैं यह जानना चाहता हूँ । इसे सुनने के लिये मेरे मनमें बड़ा कौतूहल- बड़ी उत्कण्ठा है ॥ १९ ॥

 

सन्नन्द बोले- नन्दराज ! पूर्वकालमें नैमित्तिक प्रलय के अवसर पर एक महान् दैत्य प्रकट हुआ, जो शङ्खासुर के नामसे प्रसिद्ध था। वह वेदद्रोही दैत्यराज समस्त देवताओं को जीतकर ब्रह्मलोक में गया और वहाँ सोते हुए ब्रह्मा के पास से वेदों की पोथी चुराकर समुद्र में जा घुसा। वेदों के जाते ही देवताओं का सारा बल चला गया। तब पूर्ण भगवान् यज्ञेश्वर श्रीहरिने मत्स्यरूप धारण करके नैमित्तिक प्रलयके सागरमें उस शङ्खासुरके साथ युद्ध किया ॥ २०-२२ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



1 टिप्पणी:

  1. 🌾🌷🌷🌾जय श्री हरि:🙏🙏
    ॐ श्री परमात्मने नमः
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    नारायण नारायण नारायण नारायण 🙏🌹🙏🌹🙏

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