गुरुवार, 6 जून 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सत्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध- सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)

महाराज परीक्षित्‌द्वारा कलियुगका दमन

पतितं पादयोर्वीरः कृपया दीनवत्सलः ।
शरण्यो नावधीच्छ्लोक्य आह चेदं हसन्निव ॥३०॥

राजोवाच
न ते गुडाकेशयशोधराणां 
बद्धाञ्जलेर्वै भयमस्ति किंचित् ।
न वर्तितव्यं भवता कथंचन 
क्षेत्रे मदीये त्वमधर्मबन्धुः॥३१॥
त्वां वर्तमानं नरदेवदेहे- 
ष्वनु प्रवृत्तोऽयमधर्मपूगः ।
लोभो‍ऽनृतं चौर्यमनार्यमंहो 
ज्येष्ठा च माया कलहश्च दम्भः ॥३२॥
न वर्तितव्यं तदधर्मबन्धो 
धर्मेण सत्येन च वर्तितव्ये ।
ब्रह्मावर्ते यत्र यजन्ति यज्ञै- 
र्यज्ञेश्वरं यज्ञवितानविज्ञाः ॥३३॥
यस्मिन् हरिर्भगवानिज्यमान 
इज्यामूर्तिर्यजतां शं तनोति ।
कामानमोघान् स्थिरजंगमाना- 
मन्तर्बाहिर्वायुरिवैष आत्मा ॥३४॥

सूत उवाच ।
परिक्षितैवमादिष्टः स कलिर्जातवेपथु: ।
तमुद्यातासिमाहेदं दण्डपाणिमिवोद्यतम् ॥३५॥

परीक्षित्‌ बड़े यशस्वी, दीनवत्सल और शरणागतरक्षक थे। उन्होंने जब कलियुगको अपने पैरोंपर पड़े देखा तो कृपा करके उसको मारा नहीं, अपितु हँसते हुए-से उससे कहा ॥ ३० ॥

परीक्षित्‌ बोले—जब तू हाथ जोडक़र शरण आ गया, तब अर्जुनके यशस्वी वंशमें उत्पन्न हुए किसी भी वीरसे तुझे कोई भय नहीं है। परन्तु तू अधर्मका सहायक है, इसलिये तुझे मेरे राज्यमें बिलकुल नहीं रहना चाहिये ॥ ३१ ॥ तेरे राजाओंके शरीरमें रहनेसे ही लोभ, झूठ, चोरी, दुष्टता, स्वधर्मत्याग, दरिद्रता, कपट, कलह, दम्भ और दूसरे पापोंकी बढ़ती हो रही है ॥ ३२ ॥ अत: अधर्मके साथी ! इस ब्रह्मावर्तमें तू एक क्षणके लिये भी न ठहरना; क्योंकि यह धर्म और सत्यका निवासस्थान है। इस क्षेत्रमें यज्ञविधिके जाननेवाले महात्मा यज्ञोंके द्वारा यज्ञपुरुष भगवान्‌की आराधना करते रहते हैं ॥ ३३ ॥ इस देशमें भगवान्‌ श्रीहरि यज्ञोंके रूपमें निवास करते हैं, यज्ञोंके द्वारा उनकी पूजा होती है और वे यज्ञ करनेवालोंका कल्याण करते हैं। वे सर्वात्मा भगवान्‌ वायुकी भाँति समस्त चराचर जीवोंके भीतर और बाहर एकरस स्थित रहते हुए उनकी कामनाओंको पूर्ण करते रहते हैं ॥ ३४ ॥
सूतजी कहते हैं—परीक्षित्‌की यह आज्ञा सुनकर कलियुग सिहर उठा। यमराजके समान मारनेके लिये उद्यत, हाथमें तलवार लिये हुए परीक्षित्‌से वह बोला ॥ ३५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


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