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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
पहला
अध्याय (पोस्ट 03)
सन्नन्दका
गोपों को महावन से वृन्दावन में चलने की सम्मति देना और व्रजमण्डल के सर्वाधिक माहात्म्य
का वर्णन करना
शूलं चिक्षेप हरये शंखो दैत्यो महाबलः ।
स्वचक्रेण हरिः साक्षात्तच्छूलं शतधाकरोत् ॥ २३ ॥
हरिं तताड शिरसा शंखो विष्णुमुरःस्थले ।
तस्य मूर्द्धप्रहारेण न चचाल परात्परः ॥ २४ ॥
तदा गदां समादाय मत्स्यरूपधरो हरिः ।
पृष्ठे जघान तं दैत्यं शंखरूपं महाबलम् ॥ २५ ॥
गदाप्रहारव्यथितः किंचिद्व्याकुलमानसः ।
पुनरुत्थाय सर्वेशं मुष्टिना स तताड ह ॥ २६ ॥
तदा विष्णुः स्वचक्रेण सशृङ्गं तच्छिरो दृढम् ।
जहार कुपितः साक्षाद्भगवान् कमलेक्षणः ॥ २७ ॥
जित्वा शंखं देववरैः सार्धं विष्णुर्व्रजेश्वर ।
प्रयागमेत्य स हरिर्वेदान् तान् ब्रह्मणे ददौ ॥ २८ ॥
यज्ञं चकार विधिवत्सर्वदेवगणैः सह ।
प्रयागं च समाहूय तीर्थराजं चकार ह ॥ २९ ॥
तत्साक्षादक्षयवटः कृतो लीलातपत्रवत् ।
मुनिभानुसुतेऽथोर्मिचामरैस्तं विरेजतुः ॥ ३० ॥
तदैव सर्वतीर्थानि जंबूद्वीपस्थितानि च ।
नीत्वा बलिं समाजग्मुस्तीर्थराजाय धीमते ॥ ३१ ॥
तीर्थराजं च संपूज्य नत्वा तीर्थानि सर्वतः ।
स्वधामानि ययुर्नन्द हरौ देवैर्गते सति ॥ ३२ ॥
तदैव नारदः प्राप्तो मुनीन्द्रः कलहप्रियः ।
सिंहासने भ्राजमानं तीर्थराजमुवाच ह ॥ ३३ ॥
महाबली
दैत्य शङ्ख ने श्रीहरि के ऊपर शूल चलाया। किंतु साक्षात् श्रीहरि ने अपने चक्रसे
उस शूल के सैकड़ों टुकड़े कर दिये। तब शङ्ख ने अपने सिर से भगवान् विष्णु के
वक्षःस्थल में प्रहार किया। किंतु उसके उस प्रहार से परात्पर श्रीहरि विचलित नहीं
हुए। उस समय मत्स्यरूपधारी श्रीहरिने हाथमें गदा लेकर महाबली शङ्खरूपधारी उस दैत्य की पीठ पर
आघात किया ।। २३-२५ ॥
गदा
के प्रहार से वह इतना पीड़ित हुआ कि उसका चित्त कुछ व्याकुल हो गया;
किंतु पुनः उठकर उसने सर्वेश्वर श्रीहरिको मुक्केसे मारा। तब कमलनयन
साक्षात् भगवान् विष्णुने कुपित हो अपने चक्रसे उसके सुदृढ़ मस्तक को सींगसहित काट
डाला ।। २६-२७ ॥
व्रजेश्वर
! इस प्रकार शङ्ख को जीतकर देवताओंके साथ सर्वव्यापी श्रीहरि ने प्रयागमें आकर वे
चारों वेद ब्रह्माजीको दे दिये। फिर सम्पूर्ण देवताओंके साथ उन्होंने विधिवत्
यज्ञका अनुष्ठान किया और प्रयागतीर्थके अधिष्ठाता देवताको बुलाकर उसे 'तीर्थराज' पदपर अभिषिक्त कर दिया । साक्षात्
अक्षयवटको तीर्थराजके लिये लीला - छत्र-सा बना दिया । मुनिकन्या गङ्गा तथा
सूर्यसुता यमुना अपनी तरङ्गरूपी चामरों से उनकी सेवा करने लगीं ।। २८-३० ॥
उसी
समय जम्बूद्वीपके सारे तीर्थ भेंट लेकर बुद्धिमान् तीर्थराजके पास आये और उनकी
पूजा और वन्दना करके वे तीर्थ अपने-अपने स्थान- को चले गये। नन्द ! जब देवताओंके
साथ श्रीहरि भी चले गये, तब वहीं कलहप्रिय
मुनीन्द्र नारदजी आ पहुँचे और सिंहासनपर देदीप्यमान तीर्थराजसे बोले ॥ ३१ - ३३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
🌺💖🌹🥀जय श्री हरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण