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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
दूसरा
अध्याय (पोस्ट 03)
गिरिराज
गोवर्धन की उत्पत्ति तथा उसका व्रजमण्डल में आगमन
विश्वेश्वरस्य देवस्य काशीनाम्ना महापुरी ।
यत्र पापी मृतः सद्यः परं मोक्षं प्रयाति हि ॥ २४ ॥
यत्र गंगाऽऽगता साक्षाद्विश्वनाथोऽपि यत्र वै ।
तत्रैव स्थापयिष्यामि जातोऽयं मे मनोरथः ॥ २६ ॥
सन्नन्द उवाच -
पुलस्त्यवचनं श्रुत्वा स्वसुतस्नेहविह्वलः ।
अश्रुपूर्णो द्रोणगिरिस्तं मुनिं वाक्यमब्रवीत् ॥ २७ ॥
द्रोण उवाच -
पुत्रस्नेहाकुलोऽहं वै पुत्रो मेऽयमतिप्रियः ।
ते शापभयभीतोऽहं वदाम्येनं महामुने ॥ २८ ॥
हे पुत्र गच्छ मुनिना भारते कर्मके शुभे ।
त्रैवर्ग्यं लभ्यते यत्र नृभिर्मोक्षमपि क्षणात् ॥ २९ ॥
गोवर्धन उवाच -
मुने कथं मां नयसि लंबितं योजनाष्टकम् ।
योजनद्वयमुच्चांगं पंचयोजनविस्तृतम् ॥ ३० ॥
पुलस्त्य उवाच -
उपविश्य करे मे त्वं गच्छ पुत्र यथासुखम् ।
वाहयामि करे त्वां वै यावत्काशीं समागतः ॥ ३१ ॥
गोवर्धन उवाच -
मुने यत्र स्थले भूम्यां स्थापनां मे करिष्यसि ।
करिष्यामि न चोत्थानं तद्भूम्याः शपथो मम ॥ ३२ ॥
पुलस्त्य उवाच -
अहमाशाल्मलिद्वीपान् मर्यादीकृत्य कौसलम् ।
न स्थापनां करिष्यामि शपथस्तेऽपि मे पथि ॥ ३३ ॥
सन्नन्द उवाच -
मुनेः करतले तस्मिन्नारुरोह महाचलः ।
प्रणम्य पितरं द्रोणमश्रुपूर्णाकुलेक्षणः ॥ ३४ ॥
मुनिस्तं दक्षिणकरे धृत्वा गच्छन् शनैः शनैः ।
स्वतेजो दर्शयन् नॄणां प्राप्तोऽभूद्व्रजमंडले ॥ ३५ ॥
भगवान्
विश्वेश्वर की महानगरी 'काशी' नामसे प्रसिद्ध है, जहाँ मरणको प्राप्त हुआ पापी
पुरुष भी तत्काल परम मोक्ष प्राप्त कर लेता है, जहाँ गङ्गा
नदी प्राप्त होती हैं और जहाँ साक्षात् विश्वनाथ भी विराजमान हैं। मैं वहीं
तुम्हारे पुत्र को स्थापित करूँगा, जहाँ दूसरा कोई पर्वत
नहीं है । लता-बेलों और वृक्षों से व्याप्त जो तुम्हारा पुत्र गोवर्धन है, उसके ऊपर रहकर मैं तपस्या करूँगा – ऐसी अभिलाषा मेरे मन में जाग्रत् हुई
है । २४ - २६॥
सन्नन्दजी
कहते हैं- पुलस्त्यजीकी यह बात सुनकर पुत्र - स्नेहसे विह्वल हुए द्रोणाचलके
नेत्रोंमें आँसू भर आये। उसने पुलस्त्य मुनिसे कहा ॥ २७ ॥
द्रोणाचल
बोला- महामुने ! मैं पुत्र स्नेहसे आकुल हूँ। यह पुत्र मुझे अत्यन्त प्रिय है,
तथापि आपके शापके भयसे भीत होकर मैं इसे आपके हाथोंमें देता हूँ।
(फिर वह पुत्रसे बोला - ) बेटा! तुम मुनिके साथ कल्याणमय कर्मक्षेत्र भारतवर्षमें
जाओ । वहाँ मनुष्य सत्कर्मोंद्वारा धर्म, अर्थ और काम —
त्रिवर्ग सुख प्राप्त करते हैं तथा (निष्काम कर्म एवं ज्ञानयोगद्वारा) क्षणभरमें
मोक्ष भी पा लेते हैं ।। २८-२९ ॥
गोवर्धनने
कहा- मुने! मेरा शरीर आठ योजन लंबा, दो
योजन ऊँचा और पाँच योजन चौड़ा है। ऐसी दशामें आप किस प्रकार मुझे ले चलेंगे ॥ ३० ॥
पुलस्त्यजी
बोले- बेटा ! तुम मेरे हाथपर बैठकर सुखपूर्वक चलेचलो। जबतक काशी नहीं आ जाती,
तबतक मैं तुम्हें हाथपर ही ढोये चलूँगा ॥ ३१ ॥
गोवर्धनने
कहा- मुने ! मेरी एक प्रतिज्ञा है। आप जहाँ-कहीं भी भूमिपर मुझे एक बार रख देंगे,
वहाँकी भूमिसे मैं पुनः उत्थान नहीं करूँगा ॥ ३२ ॥
पुलस्त्यजी
बोले- मैं इस शाल्मलीद्वीपसे लेकर भारतवर्षके कोसलदेशतक तुम्हें कहीं भी रास्तेमें
नहीं रखूँगा, यह मेरी प्रतिज्ञा है ॥ ३३ ॥
सन्नन्दजी
कहते हैं-नन्दराज ! तदनन्तर वह महान् पर्वत पिताको प्रणाम करके मुनिकी हथेलीपर
आरूढ़ हुआ। उस समय उसके नेत्रोंमें आँसू भर आये । उसे दाहिने हाथपर रखकर पुलस्त्य
मुनि लोगोंको अपना तेज दिखाते हुए धीरे-धीरे चले और व्रज-मण्डलमें आ पहुँचे ॥ ३४-३५
॥
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा
प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260
से
🌸🌿🥀🌷जय श्री हरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
जय हो मेरे गोवर्धन गिरधारी महाराज 🙏🥀🙏