॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध- सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०७)
महाराज परीक्षित्द्वारा कलियुगका दमन
वृषस्य नष्टांस्त्रीन् पादान् तपः शौचं दयामिति ।
प्रतिसंदध आश्वास्य महीं च समवर्धयत् ॥४२॥
स एष एतर्ह्यध्यास्त आसनं पार्थिवोचितम् ।
पितामहेनोपन्यस्तं राज्ञारण्यं विविक्षता ॥४३॥
आस्तेऽधुना स राजर्षिः कौरवेन्द्रश्रियोल्लसन् ।
गजाह्वयो महाभागश्चक्रवर्ती बृहच्छ्रवाः ॥४४॥
इत्थम्भूतानुभावोऽयमभिमन्युसुतो नृपः ।
यस्य पालयतः क्षोणीं यूयं सत्राय दीक्षिताः ॥४५॥
राजा परीक्षित् ने इसके बाद वृषभरूप धर्म के तीनों चरण—तपस्या, शौच और दया जोड़ दिये और आश्वासन देकर पृथ्वीका संवर्धन किया ॥ ४२ ॥ वे ही महाराजा परीक्षित् इस समय अपने राजसिंहासनपर, जिसे उनके पितामह महाराज युधिष्ठिरने वनमें जाते समय उन्हें दिया था, विराजमान हैं ॥ ४३ ॥ वे परम यशस्वी सौभाग्यभाजन चक्रवर्ती सम्राट् राजर्षि परीक्षित् इस समय हस्तिनापुरमें कौरव-कुलकी राज्यलक्ष्मीसे शोभायमान हैं ॥ ४४ ॥ अभिमन्युनन्दन राजा परीक्षित् वास्तवमें ऐसे ही प्रभावशाली हैं, जिनके शासनकालमें आप-लोग इस दीर्घ कालीन यज्ञके लिये दीक्षित हुए हैं [*] ॥ ४५ ॥
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[*] ४३से ४५ तकके श्लोकोंमें महाराज परीक्षित्का वर्तमानके समान वर्णन किया गया है। ‘वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा’ (पा सू३। ३। १३१) इस पाणिनि-सूत्रके अनुसार वर्तमानके निकटवर्ती भूत और भविष्यके लिये भी वर्तमानका प्रयोग किया जा सकता है। जगद्गुरु श्रीवल्लभाचार्यजी महाराजने अपनी टीकामें लिखा है कि यद्यपि परीक्षित्की मृत्यु हो गयी थी, फिर भी उनकी कीर्ति और प्रभाव वर्तमानके समान ही विद्यमान थे। उनके प्रति अत्यन्त श्रद्धा उत्पन्न करनेके लिये उनकी दूरी यहाँ मिटा दी गयी है। उन्हें भगवान्का सायुज्य प्राप्त हो गया था, इसलिये भी सूतजीको वे अपने सम्मुख ही दीख रहे हैं। न केवल उन्हींको, बल्कि सबको इस बातकी प्रतीति हो रही है। ‘आत्मा वै जायते पुत्र:’ इस श्रुतिके अनुसार जनमेजय के रूपमें भी वही राजसिंहासनपर बैठे हुए हैं। इन सब कारणोंसे वर्तमान के रूपमें उनका वर्णन भी कथा के रस को पुष्ट ही करता है।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमंहंस्या संहितायां प्रथमस्कन्धे कलिनिग्रहो नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥१७॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
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🪷🌷🌾🪷जय श्री हरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण