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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
पहला
अध्याय (पोस्ट 05)
सन्नन्दका
गोपों को महावन से वृन्दावन में चलने की सम्मति देना और व्रजमण्डल के सर्वाधिक माहात्म्य
का वर्णन करना
सन्नन्द उवाच -
आदौ वाराहकल्पेऽस्मिन् हरिर्वाराहरूपधृक् ।
रसातलात्समुद्धृत्य गां बभौ दंष्ट्रया प्रभुः ॥ ४६ ॥
गच्छन्तं वारिवृन्देषु भगवन्तं रमेश्वरम् ।
दंष्ट्राग्रे शोभिता पृथ्वी प्राह देवं जनार्दनम् ॥ ४७ ॥
धरोवाच -
देव कुत्र स्थले त्वं वै स्थापनां मे करिष्यसि ।
जलपूर्णं जगत्सर्वं दृश्यते वद हे प्रभो ॥ ४८ ॥
वाराह उवाच -
यदा वृक्षाः प्रदृष्टा हि भवन्त्युद्वेगता जले ।
तदा ते स्थापना भूयात्पश्यन्ती गच्छ भूरुहान् ॥ ४९ ॥
धरोवाच -
स्थावराणां तु रचना ममोपरि समास्थिता ।
अन्यास्ति किं वा धरणी त्वहं हि धारणामयी ॥ ५० ॥
सन्नन्द उवाच -
वदन्तीत्थं ददर्शाग्रे जले वृक्षान् मनोहरान् ।
वीक्ष्य पृथ्वी हरिं प्राह सर्वतो विगतविस्मया ॥ ५१ ॥
धरोवाच -
देव कस्मिंस्थले वृक्षाः सन्ति ह्येते सपल्लवाः ।
इदं मनसि मे चित्रं वद यज्ञपते प्रभो ॥ ५२ ॥
वाराह उवाच -
माथुरं मंडलं दिव्यं दृश्यतेऽग्रे नितम्बिनि ।
गोलोकभूमिसंयुक्तं प्रलयेऽपि न संहृतम् ॥ ५३ ॥
सन्नन्द उवाच -
तच्छ्रुत्वा विस्मिता पृथ्वी गतमाना बभूव ह ।
तस्मान्नन्द महाबाहो व्रजोऽयं सर्वतोऽधिकः ॥ ५४ ॥
श्रुत्वेदं व्रजमाहात्म्यं जीवन्मुक्तो भवेन्नरः ।
तीर्थराजात्परं विद्धि माथुरं व्रजमंडलम् ॥ ५५ ॥
सन्नन्द
ने कहा - इसी वाराहकल्प में पहले श्रीहरि ने वराहरूप धारण करके अपनी दाढ़पर उठाकर
रसातल से पृथ्वी का उद्धार किया था । उस समय उन प्रभु की बड़ी शोभा हुई थी। जल में
जाते हुए उन वराहरूपधारी भगवान् रमानाथ जनार्दन से उनकी दंष्ट्रा के अग्रभाग पर
शोभित हुई पृथ्वी बोली ।। ४६-४७ ॥
पृथ्वी
ने पूछा- प्रभो ! सारा विश्व पानी से भरा दिखायी देता है। अतः बताइये,
आप किस स्थल पर मेरी स्थापना करेंगे ? ॥ ४८ ॥
भगवान्
वराह बोले- जब वृक्ष दिखायी देने लगे और जलमें उद्वेगका भाव प्रकट हो,
तब उसी स्थानपर तुम्हारी स्थापना होगी। तुम वृक्षोंको देखती चलो ॥
४९ ॥
पृथ्वीने
कहा- भगवन् ! स्थावर वस्तुओंकी रचना तो मेरे ही ऊपर हुई है। क्या कोई दूसरी भी
धरणी है ?
धारणामयी धरणी तो केवल मैं ही हूँ ॥ ५० ॥
सन्नन्दजी
कहते हैं— यों कहती हुई पृथ्वीने अपने सामने जलमें मनोहर वृक्ष देखे। उन्हें देखकर
पृथ्वीका अभिमान दूर हो गया और वह भगवान्से बोली- 'देव ! किस स्थलपर ये पल्लवसहित वृक्ष विद्यमान हैं ? यह दृश्य मेरे मनमें बड़ा आश्चर्य पैदा कर रहा है । यज्ञपते ! प्रभो !
इसका रहस्य बताइये ॥ ५१-५२ ॥
भगवान्
वराह बोले- नितम्बिनि ! यह सामने दिव्य 'माथुर-मण्डल'
दिखायी देता है, जो गोलोककी धरतीसे जुड़ा हुआ
है। प्रलयकालमें भी इसका संहार नहीं होता ॥ ५३ ॥
सन्नन्द
बोले- यह सुनकर पृथ्वीको बड़ा विस्मय हुआ । वह अभिमानशून्य हो गयी । अतः महाबाहु
नन्द ! यह व्रजमण्डल समस्त लोकोंसे अधिक महत्त्वशाली है। व्रजका यह माहात्म्य
सुनकर मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है। तुम 'माथुर
व्रजमण्डल' को तीर्थराज प्रयागसे भी उत्कृष्ट समझो ॥ ५४-५५ ॥
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत नन्द-सन्नन्द-संवाद में 'वृन्दावन में आगमन के उद्योग का वर्णन' नामक पहला
अध्याय पूरा हुआ ॥ १ ॥
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा
प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260
से
🌺💖🥀🌹जय श्री हरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंवराह रूप नारायण को सहस्त्रों सहस्त्रों कोटिश: वंदन🌼💟🙏
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
दिव्य अलौकिक ब्रजधाम को
अनंत कोटि वंदन 🙏🥀🙏
जय श्री राधे गोविंद