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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
ग्यारहवाँ
अध्याय ( पोस्ट 01 )
धेनुकासुर का उद्धार
श्रीनारदउवाच
।।
एकदा सबलः कृष्णश्चारयन्गा मनोहराः ।।
गोपालैः सहितः सर्वैर्ययौ तालवनं नवम् ।। १ ।।
धेनुकस्य भयाद्गोपा न गतास्ते वनान्तरम् ।।
कृष्णोपि न गतस्तत्र बल एको विवेश ह ।।२।।
नीलांबरं कटौ बद्धा बलदेवो महाबलः ।।
परिपक्वफलार्थं हि तद्वने विचचार ह।।३।।
बाहुभ्यां कंपयंस्तालान्फलसंघं निपातयन् ।।
गर्जंश्च निर्भयः साक्षादनन्तोनन्तविक्रमः।।४।।
फलानां पततां शब्दं श्रुत्वा क्रोधावृतः खरः ।।
मध्याह्ने स्वापकृद्दुष्टो भीमः कंससखो बली ।।५।।
आययौ संमुखे योद्धुं बलदेवस्य धेनुकः ।।
बलं पश्चिम पादाभ्यां निहत्योरसि सत्वरम् ।।६।।
चकार खरशब्दं स्वं परिधावन्मुहुर्मुहुः ।।
गृहीत्वा धेनुकं शीघ्रं बलः पश्चिमपादयोः ।।७।।
चिक्षेप तालवृक्षे च ह- स्तेनैकेनलीलया ।।
तेन भग्नश्च तालोपि तालान्पार्श्वस्थितान्बहून् ।।८।।
पातयामास राजेन्द्र तदद्भुतमिवाभवत् ।।
पुनरुत्थाय दैत्येंद्रो बलं जग्राह रोषतः ।। ९ ।।
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! एक दिन श्रीकृष्ण बलरामजीके साथ मनोहर गौएँ चराते हुए नूतन तालवनके
पास चले गये। उस समय समस्त गोपाल उनके साथ थे। वहाँ धेनुकासुर रहा करता था। उसके भयसे
गोपगण वनके भीतर नहीं गये । श्रीकृष्ण भी नहीं गये। अकेले बलरामजीने उसमें प्रवेश किया ॥ १-२ ॥
अपने
नीले वस्त्र को कमर में बाँधकर कर दिया
। राजेन्द्र ! वह एक अद्भुत-सी बात हुई । महाबली बलदेव परिपक्व फल लेनेके लिये उस वनमें
दैत्यराज धेनुक ने पुनः उठकर रोषपूर्वक बलरामजीको विचरने लगे।
बलरामजी साक्षात् अनन्तदेवके पकड़ लिया और जैसे एक हाथी अपना सामना अवतार हैं। उनका
पराक्रम भी अनन्त है। अतः दोनों करनेवाले दूसरे हाथीको दूरतक ठेल ले जाता है, उसी हाथोंसे
ताड़के वृक्षोंको हिलाते और फल-समूहोंको प्रकार उन्हें धक्का देकर एक योजन पीछे हटा
दिया । गिराते हुए वहाँ निर्भय गर्जना करने लगे। गिरते हुए तब बलरामजी ने तत्काल धेनुक को पकड़कर घुमाना फलों की आवाज सुनकर वह गर्दभाकार असुर रोष से आग-बबूला
हो गया। वह दोपहर में सोया करता था, किंतु आज विघ्न पड़ जानेसे
वह दुष्ट क्रोधसे भयंकर हो उठा । धेनुकासुर कंसका सखा होनेके साथ ही बड़ा बलवान् था
॥ ३-५ ॥
वह
बलदेवजीके सम्मुख युद्ध करनेके लिये आया और उसने अपने पिछले पैरोंसे उनकी छातीमें तुरंत
आघात किया। आघात करके वह बारंबार दौड़ लगाता हुआ गधेकी भाँति
रेंकने लगा। तब बलरामजीने धेनुक के दोनों पिछले पैर पकड़कर शीघ्र
ही उसे ताड़ के वृक्षपर दे मारा। यह कार्य उन्होंने एक ही हाथ से खेल-खेल में कर डाला ॥ ६-७
॥
इससे
वह तालवृक्ष स्वयं तो टूट ही गया, गिरते गिरते उसने अपने पार्श्ववर्ती दुसरे बहुत
से ताड़ों को धराशायी कर दिया | राजेन्द्र ! वह एक अद्भुत सी बात हुई | दैत्यराज
धेनुक ने पुन: उठकर रोषपूर्वक बलरामजी को पकड़ किया और जैसे एक हाथी दूसरे हाथी को
दूरतक ठेल ले जाता है, उसी प्रकार उन्हें धक्का देकर एक योजन पीछे हटा दिया ॥
८-९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
💐🌷🌷💐जय श्रीकृष्ण🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव
जय श्री राधे गोविंद
राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे
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