सोमवार, 29 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) सत्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


 

 

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श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

सत्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

श्रीकृष्ण का गोपदेवी के रूप से वृषभानु-भवन में जाकर श्रीराधा से मिलना

 

पतन्ति यत्र भ्रमरा मधुमत्ता नृपेश्वर ।
गन्धाक्तः शीतलो वायुर्मन्दगामी वहत्यलम् ॥ १५ ॥
सहस्रदलपद्मानां रजो विक्षेपयन्मुहुः ।
पुंस्कोकिला कोकिलाश्च मयूराः सारसाः शुकाः ॥ १६ ॥
कूजन्ते मधुरं नादं निकुंजशिखरेषु च ।
पुष्पशय्यासहस्राणि जलकुल्याः सहस्रशः ॥ १७ ॥
प्रोच्छलन्ति स्फुरत्स्फारा यत्र वै मेघमन्दिरे ।
बालार्ककुण्डलधराः चित्रवस्त्राम्बराननाः ॥ १८ ॥
वर्तन्ते कोटिशो यत्र सख्यस्तत्कर्मकौशलाः ।
तन्मध्ये राधिका राज्ञी भ्रमन्ती मन्दिराजिरे ॥ १९ ॥
काश्मीरपंकसंयुक्ते सूक्ष्मवस्त्रविराजिते ।
शिरीषपुष्पक्षितिजदलैरागुल्फपूरके ॥ २० ॥
मालतीमकरन्दानां क्षरद्‌भिर्बिन्दुभिर्वृते ।
कोटिचंद्रप्रतीकाशा तन्वी कोमलविग्रहा ।
शनैः शनैः पादपद्मं चालयन्ती च कोमलम् ॥ २१ ॥
समागतां तां मणिमन्दिराजिरे
     ददर्श राधा वृषभानुनन्दिनी ।
यत्तेजसा तल्ललनाहृतत्विषो
     जातास्त्वरं चंद्रमसेव तारकाः ॥ २२ ॥
विज्ञाय तद्‌गौरवमुत्तमं मह-
     दुत्थाय दोर्भ्यां परिरभ्य राधिका ।
दिव्यासने स्थाप्य सुलोकरीत्या
     जलादिकं चार्हणमारभच्छुभम् ॥ २३ ॥


राधोवाच -
स्वागतं ते सखि शुभे नामधेयं वदाशु मे ।
भूरिभाग्यं ममैवाद्य भवत्याऽऽगतया स्वतः ॥ २४ ॥
त्वत्समानं दिव्यरूपं दृश्यते न हि भूतले ।
यत्र त्वं वर्तसे सुभ्रु पत्तनं धन्यमेव तत् ॥ २५ ॥
वद देवि सविस्तारं हेतुमागमनस्य च ।
मम योग्यं च यत्कार्यं वक्तव्यं तत्त्वया खलु ॥ २६ ॥
कटाक्षेण सुदीप्त्या च वचसा सुस्मितेन वै ।
गत्या कृत्या श्रीपतिवद्दृश्यते सांप्रतं मया ॥ २७ ॥
नित्यं शुभे मे मिलनार्थमाव्रज
     न चेत् स्वसंकेतमलं विधेहि ।
येनैव संगो विधिना भवेद्धि
     विधिर्भवत्या स सदा विधेयः ॥ २८ ॥
अयि त्वदात्माऽतिपरं प्रियो मे
     त्वदाकृतिः श्रीव्रजराजनन्दनः ।
येनैव मे देवि हृतं तु चेत-
     स्त्वय ननान्देव वधूर्दधामि तम् ॥ २९ ॥

 

नृपेश्वर ! उस उपवनमें मधु पीकर मतवाले हुए भौरे टूट पड़ते थे। वहाँ शीतल मन्द-सुगन्ध वायु चल रही थी, जो सहस्रदल कमलोंके परागको बारंबार बिखेरा करती थी । उस उद्यानमें निकुञ्ज शिखरोंपर बैठे हुए नर- कोकिल, मादा-कोकिल, मोर, सारस और शुक पक्षी मीठी आवाजमें कूज रहे थे। वहाँ फूलोंकी सहस्रों शय्याएँ सज्जित थीं और पानीकी हजारों नहरें बह रही थीं । वहाँके मेघ मन्दिरमें सैकड़ों फुहारे छूट रहे थे। बालसूर्यके समान कान्तिमान् कुण्डल तथा विचित्र वर्णवाले वस्त्र धारण किये करोड़ों सुन्दरमुखी सखियाँ वहाँ श्रीराधाके सेवा कार्यमें अपनी कुशलता- का परिचय देती थीं। उनके बीचमें श्रीराधिका रानी उस राजमन्दिर में टहल रही थीं। वह राजमन्दिर केसरिया रंगके सूक्ष्म वस्त्रोंसे सजाया गया था । वहाँकी भूमिपर पर्वतीय पुष्प, जलज पुष्प तथा स्थलपर होनेवाले बहुत से पुष्प और कोमल पल्लव इतनी अधिक संख्यामें बिछाये गये थे कि वहाँ पाँव रखनेपर गुल्फ (घुट्ठी) तकका भाग ढक जाता था ॥ १५-२०

मालती के मकरन्दों की बूँदें वहाँ झरती रहती थीं। ऐसे आँगनमें करोड़ों चन्द्रोंके समान कान्तिमती, कोमलाङ्गी एवं कृशाङ्गी श्रीराधा धीरे-धीरे अपने कोमल चरणारविन्दोंका संचालन करती हुई घूम रही थीं। मणि-मन्दिरके आँगनमें आयी हुई उस नवीना गोप- सुन्दरीको वृषभानुनन्दिनी श्रीराधाने देखा । उसके तेजसे वहाँकी समस्त ललनाएँ हतप्रभ हो गयीं, जैसे चन्द्रमाके उदय होनेसे ताराओंकी कान्ति फीकी पड़ जाती है। उसके उत्तम एवं महान् गौरवका अनुभव करके श्रीराधाने अभ्युत्थान दिया (अगवानी की) और दोनों बाँहोंसे उसका गाढ़ आलिङ्गन करके उसे दिव्य सिंहासनपर बिठाया। फिर लोकरीतिके अनुसार जल आदि उपचार अर्पित करके उसका सुन्दर पूजन (आदर-सत्कार) आरम्भ किया ।। २१–२३ ॥

श्रीराधा बोलीं- सुन्दरी सखी! तुम्हारा स्वागत है। मुझे शीघ्र ही अपना नाम बताओ। तुम स्वतः आज यहाँ आ गयीं, यह मेरे लिये ही महान् सौभाग्यकी बात है। इस भूतलपर तुम्हारे समान दिव्य रूपका कहीं दर्शन नहीं होता । शुभ्रु ! जहाँ तुम जैसी सुन्दरी निवास करती हैं, वह नगर निश्चय ही धन्य है। देवि ! अपने आगमनका कारण विस्तारपूर्वक बताओ। मेरे योग्य जो कार्य हो, वह तुम्हें अवश्य कहना चाहिये। तुम अपनी बाँकी चितवन, सुन्दर दीप्ति, मधुर वाणी, मनोहर मुसकान, चाल-ढाल और आकृतिसे इस समय मुझे श्रीपतिके सदृश दिखायी देती हो । शुभे ! तुम प्रतिदिन मुझसे मिलनेके लिये आया करो। यदि न आ सको तो मुझे ही अपने निवासस्थानका संकेत प्रदान करो। जिस विधिसे हमारा तुम्हारे साथ मिलना सम्भव हो, वह विधि तुम्हें सदा उपयोगमें लानी चाहिये। हे सखी! तुम्हारा यह शरीर मुझे बहुत प्यारा लगता है; क्योंकि मेरे प्रियतम श्रीव्रजराजनन्दनकी आकृति तुम्हारी ही जैसी है, जिन्होंने मेरे मनको हर लिया है। अतः तुम मेरे पास रहो। जैसे भौजाई अपनी ननदको प्यार करती है, उसी प्रकार मैं तुम्हारा आदर करूँगी ।। २४ - २९॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



1 टिप्पणी:

  1. 💖🥀🌷💐जय श्रीकृष्ण 🙏
    ॐ श्री परमात्मने नमः
    राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे
    वृषभानु दुलारी श्री राधे
    वृंदावनेश्वरी श्री राधे
    जय श्री राधे कृष्णा

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