श्रीगर्ग-संहिता
( श्रीवृन्दावनखण्ड
)
सोलहवाँ
अध्याय (पोस्ट 02)
तुलसीका
माहात्म्य, श्रीराधाद्वारा तुलसी सेवन-व्रतका अनुष्ठान तथा दिव्य तुलसीदेवीका प्रत्यक्ष
प्रकट हो श्रीराधाको वरदान देना
श्रीनारद उवाच -
इत्थं चंद्राननावाक्यं श्रुत्वा रासेश्वरी नृप ।
तुलसीसेवनं साक्षादारेभे हरितोषणम् ॥ २० ॥
केतकीवनमध्ये च शतहस्तं सुवर्तुलम् ।
उच्चैर्हेमखचिद्भित्ति पद्मरागतटं शुभम् ॥ २१ ॥
हरिद्धीरकमुक्तानां प्राकारेण महोल्लसत् ।
सर्वतस्तोलिकायुक्तं चिंतामणिसुमंडितम् ॥ २२ ॥
हेमध्वजसमायुक्तं उत्तोरणविराजितम् ।
हैमैर्वितानैः परितो वैजयन्तमिव स्फुरत् ॥ २३ ॥
एतादृशं श्रीतुलसीमन्दिरं सुमनोहरम् ।
तन्मध्ये तुलसीं स्थाप्य हरित्पल्लवशोभितम् ॥ २४ ॥
अभिजिन्नमनक्षत्रे तत्सेवां सा चकार ह ।
समाहूतेन गर्गेण दिष्टेन विधिना सती ॥ २५ ॥
श्रीकृष्णतोषणार्थाय भक्त्या परमया सती ।
इषुपूर्णां समारभ्य चैत्रपूर्णावधि व्रतम् ॥ २६ ॥
पंचामृतेन तुलसीं मासे मासे पृथक् पृथक् ।
उद्यापनसमारंभं वैशाखप्रतिपद्दिने ॥ २८ ॥
गर्गदिष्टेन विधिना वृषभानुसुता नृप ।
षट्पंचाशत्तमैर्भोगैः ब्राह्मणानां द्विलक्षकम् ॥ २९ ॥
संतर्प्य वस्त्रभूषाद्यैः दक्षिणां राधिका ददौ ।
दिव्यानां स्थूलमुक्तानां लक्षभारं विदेहराट् ॥ ३० ॥
कोटिभारं सुवर्णानां गर्गाचार्याय सा ददौ ।
शतभारं सुवर्णानां मुक्तानाञ्च तथैव हि ॥ ३१ ॥
भक्त्या परमया राधा ब्राह्मणे ब्राह्मणे ददौ ।
देवदुन्दुभयो नेदुः ननृतुश्चाप्सरोगणाः ।
तन्मन्दिरोपरि सुरा पुष्पवर्षं प्रचक्रिरे ॥ ३२ ॥
तदाऽऽविरासीत् तुलसी हरिप्रिया
सुवर्णपीठोपरि शोभितासना ।
चतुर्भुजा पद्मपलाशवीक्षणा
श्यामा फुरद्धेमकिरीटकुण्डला ॥ ३३ ॥
पीतांबराच्छादितसर्पवेणीं
स्रजं दधानां नववैजयन्तीम् ।
खगात्समुत्तीर्य च रंगवल्ली
चुचुम्ब राधां परिरभ्य बाहुभिः ॥ ३४
॥
तुलस्युवाच -
अहं प्रसनाऽस्मि कलावतीसुते
तद्भक्तिभावेन जिता निरन्तरम् ।
कृतं च लोकव्यवहारसंग्रहा-
त्त्वया व्रतं भामिनि सर्वतोमुखम् ॥
३५ ॥
मनोरथस्ते सफलोऽत्र भूयाद्
बुद्धीन्द्रियैश्चित्तमनोभिरग्रतः ।
सदानुकूलत्वमलं पतेः परं
सौभाग्यमेवं परिकीर्तनीयम् ॥ ३६ ॥
एवं वदन्तीं तुलसीं हरिप्रियां
नत्वाऽथ राधा वृषभानुनन्दिनी ।
प्रत्याह गोविन्दपदारविन्दयोः
भक्तिर्भवेन्मे विदिता ह्यहैतुकी ॥
३७ ॥
तथाऽस्तु चोक्ता तुलसी हरिप्रिया
ऽथान्तर्दधे मैथिल राजसत्तम ।
तदैव राधा वृषभानुनन्दिनी
प्रसन्नचित्ता स्वपुरे बभुव ह ॥ ३८ ॥
श्रीराधिकाख्यानमिदं विचित्रं
शृणोति यो भक्तिपरः पृथिव्याम् ।
त्रैवर्ग्यभावं मनसा समेत्य राजन्
ततो याति नरः कृतार्थाम् ॥ ३९ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं—
नरेश्वर ! इस प्रकार चन्द्राननाकी कही हुई बात सुनकर रासेश्वरी श्रीराधाने साक्षात्
श्रीहरिको संतुष्ट करनेवाले तुलसी सेवनका व्रत आरम्भ किया। केतकीवनमें सौ हाथ गोलाकार
भूमिपर बहुत ऊँचा और अत्यन्त मनोहर श्रीतुलसीका मन्दिर बनवाया, जिसकी दीवार सोनेसे
जड़ी थी और किनारे-किनारे पद्मरागमणि लगी थी । वह सुन्दर मन्दिर पन्ने, हीरे और मोतियोंके
परकोटेसे अत्यन्त सुशोभित था तथा उसके चारों ओर परिक्रमाके लिये गली बनायी गयी थी,
जिसकी भूमि चिन्तामणिसे मण्डित थी ॥२०-२२॥
बहुत ऊँचा तोरण (मुख्यद्वार
या गोपुर) उस मन्दिरकी शोभा बढ़ाता था। वहाँ सुवर्णमय ध्वजदण्डसे युक्त पताका फहरा
रही थी। चारों ओर ताने हुए सुनहले वितानों (चंदोवों) के कारण वह तुलसी-मन्दिर वैजयन्ती
पताका से युक्त इन्द्रभवन - सा देदीप्यमान था ।
ऐसे
तुलसी- मन्दिर के मध्यभागमें हरे पल्लवों से सुशोभित तुलसी की स्थापना करके श्रीराधाने अभिजित् मुहूर्तमें उनकी सेवा प्रारम्भ
की। श्रीगर्गजीको बुलाकर उनकी बतायी हुई विधिसे सती श्रीराधाने बड़े भक्तिभावसे श्रीकृष्णको
संतुष्ट करनेके लिये आश्विन शुक्ला पूर्णिमा से 'लेकर चैत्र पूर्णिमा तक तुलसी सेवन-व्रत का अनुष्ठान किया । २३ - २६॥
व्रत आरम्भ करके उन्होंने
प्रतिमास पृथक्-पृथक् रससे तुलसीको सींचा। कार्तिकमें दूधसे, मार्गशीर्षमें ईखके रससे,
पौषमें द्राक्षारससे, माघमें बारहमासी आमके रससे, फाल्गुन मासमें अनेक वस्तुओंसे मिश्रित
मिश्रीके रससे और चैत्र मासमें पञ्चामृत से उसका सेचन किया। नरेश्वर ! इस प्रकार व्रत
पूरा करके वृषभानुनन्दिनी श्रीराधाने गर्गजीकी बतायी हुई विधिसे वैशाख कृष्णा प्रतिपदाके
दिन उद्यापनका उत्सव किया। उन्होंने दो लाख ब्राह्मणोंको छप्पन भोगोंसे तृप्त करके
वस्त्र और आभूषणोंके साथ दक्षिणा दी। विदेहराज ! मोटे-मोटे दिव्य मोतियोंका एक लाख
भार और सुवर्णका एक कोटि भार श्रीगर्गाचार्यजीको दिया। उस समय आकाशमें देवताओंकी दुन्दुभियाँ
बजने लगीं, अप्सराओंका नृत्य होने लगा और देवतालोग उस तुलसी-मन्दिरके ऊपर दिव्य पुष्पोंकी
वर्षा करने लगे ।। २७ – ३२ ॥
उसी समय सुवर्णमय सिंहासनपर
विराजमान हरिप्रिया तुलसीदेवी प्रकट हुईं। उनके चार भुजाएँ थीं। कमलदलके समान विशाल
नेत्र थे । सोलह वर्षकी सी अवस्था एवं श्याम कान्ति थी । मस्तकपर हेममय किरीट प्रकाशित
था और कानों में काञ्चनमय कुण्डल झलमला रहे थे। पीताम्बरसे आच्छादित
केशोंकी बँधी हुई नागिन-जैसी वेणीमें वैजयन्ती माला धारण किये, गरुडसे उतरकर तुलसीदेवीने
रङ्गवल्ली-जैसी श्रीराधाको अपनी भुजाओंसे अङ्कमें भर लिया और उनके मुखचन्द्रका चुम्बन
किया ।। ३३-३४ ॥
तुलसी बोलीं- कलावती
कुमारी राधे ! मैं तुम्हारे भक्ति-भावसे वशीभूत हो निरन्तर प्रसन्न हूँ । भामिनि !
तुमने केवल लोकसंग्रहकी भावनासे इस सर्वतोमुखी व्रतका अनुष्ठान किया है (वास्तवमें
तो तुम पूर्णकाम हो) । यहाँ इन्द्रिय, मन, बुद्धि और चित्तद्वारा जो-जो मनोरथ तुमने
किया है, वह सब तुम्हारे सम्मुख सफल हो। पति सदा तुम्हारे अनुकूल हों और इसी प्रकार
कीर्तनीय परम सौभाग्य बना रहे ॥ ३५-३६ ॥
श्रीनारदजी
कहते
हैं— राजन् ! यों कहती हुई हरिप्रिया तुलसीको प्रणाम करके वृषभानुनन्दिनी राधा ने उनसे कहा – 'देवि ! गोविन्द के युगल चरणारविन्दों में मेरी अहैतुकी भक्ति बनी रहे ।' मैथिलराजशिरोमणे ! तब हरिप्रिया
तुलसी 'तथास्तु' कहकर अन्तर्धान हो गयीं। तबसे वृषभानुनन्दिनी राधा अपने नगरमें प्रसन्न
चित्त रहने लगीं। राजन् ! इस पृथ्वीपर जो मनुष्य भक्तिपरायण हो श्रीराधिकाके इस विचित्र
उपाख्यानको सुनता है, वह मन-ही-मन त्रिवर्ग-सुखका अनुभव करके अन्तमें भगवान् को पाकर कृतकृत्य हो जाता है ।। ३७-३९ ।।
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें
वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'तुलसीपूजन' नामक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १६ ॥
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा
प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260
से
💐💖💐🥀जय श्रीकृष्ण🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
जय हो मां तुलसी जी महारानी
जय हो वृषभानु दुलारी श्री राधे