॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट०३)
राजाका सृष्टिविषयक प्रश्न और शुकदेवजी का कथारम्भ
सूत उवाच ।
इत्युपामंत्रितो राज्ञा गुणानुकथने हरेः ।
हृषीकेशं अनुस्मृत्य प्रतिवक्तुं प्रचक्रमे ॥ ११ ॥
श्रीशुक उवाच ।
नमः परस्मै पुरुषाय भूयसे
सदुद्भवस्थाननिरोधलीलया ।
गृहीतशक्तित्रितयाय देहिनां
अंतर्भवायानुपलक्ष्यवर्त्मने ॥ १२ ॥
भूयो नमः सद्वृजिनच्छिदेऽसतां
असंभवायाखिलसत्त्वमूर्तये ।
पुंसां पुनः पारमहंस्य आश्रमे
व्यवस्थितानामनुमृग्यदाशुषे ॥ १३ ॥
सूतजी कहते हैं—जब राजा परीक्षित् ने भगवान्के गुणोंका वर्णन करनेके लिये उनसे इस प्रकार प्रार्थना की, तब श्रीशुकदेवजीने भगवान् श्रीकृष्णका बार-बार स्मरण करके अपना प्रवचन प्रारम्भ किया ॥ ११ ॥
श्रीशुकदेवजीने कहा—उन पुरुषोत्तम भगवान्के चरणकमलोंमें मेरे कोटि-कोटि प्रणाम हैं, जो संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयकी लीला करनेके लिये सत्त्व, रज तथा तमोगुणरूप तीन शक्तियोंको स्वीकार कर ब्रह्मा, विष्णु और शङ्करका रूप धारण करते हैं; जो समस्त चर-अचर प्राणियोंके हृदयमें अन्तर्यामीरूपसे विराजमान हैं, जिनका स्वरूप और उसकी उपलब्धिका मार्ग बुद्धिके विषय नहीं हैं; जो स्वयं अनन्त हैं तथा जिनकी महिमा भी अनन्त है ॥ १२ ॥ हम पुन: बार-बार उनके चरणोंमें नमस्कार करते हैं, जो सत्पुरुषोंका दु:ख मिटाकर उन्हें अपने प्रेमका दान करते हैं, दुष्टोंकी सांसारिक बढ़ती रोककर उन्हें मुक्ति देते हैं तथा जो लोग परमहंस आश्रममें स्थित हैं, उन्हें उनकी भी अभीष्ट वस्तुका दान करते हैं। क्योंकि चर-अचर समस्त प्राणी उन्हींकी मूर्ति हैं, इसलिये किसीसे भी उनका पक्षपात नहीं है ॥ १३ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
श्रीमद्भागवत महापुराण परब्रह्म परमेश्वर के वांग्मय स्वरूप को सहस्त्रों सहस्त्रों कोटिश:वंदन !!
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हरि:शरणम् हरि:शरणम्
हरि: शरणम् !!