रविवार, 28 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) सत्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

सत्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

श्रीकृष्ण का गोपदेवी के रूप से वृषभानु-भवन में जाकर श्रीराधा से मिलना

 

श्रीबहुलाश्व उवाच -
राधाकृष्णस्य चरितं शृण्वतो मे मनो मुने ।
न तृप्तिं याति शरदः पंकजे भ्रमरो यथा ॥ १ ॥
रासेश्वर्या कृष्णपत्‍न्या तुलसीसेवने कृते ।
यद्‍बभूव ततो ब्रह्मन् तन्मे ब्रूहि तपोधन ॥ २ ॥


श्रीनारद उवाच -
राधिकायाश्च विज्ञाय तुलसीसेवने तपः ।
प्रीतिं परीक्षन् श्रीकृष्णो वृषभानुपुरं ययौ ॥ ३ ॥
अद्‌भुतं गोपिकारूपं चलज्झंकारनूपुरम् ।
किंकिणीघण्टिकाशब्दमंगुलीयकभूषितम् ॥ ४ ॥
रत्‍नकंकणकेयूर मुक्ताहारविराजितम् ।
बालार्कताटंकलसत्कबरीपाशकौशलम् ॥ ५ ॥
नासामौक्तिकदिव्याभं श्यामकुन्तलसंकुलम् ।
धृत्वाऽसौ वृषभानोश्च मन्दिरं सन्ददर्श ह ॥ ६ ॥
प्राकारपरिखायुक्तं चतुर्द्वारसमन्वितम् ।
करीन्द्रैः कंजलाकारैर्द्वारि द्वारि मनोहरम् ॥ ७ ॥
वायुवेगैर्मनोवेगैश्चित्रवर्णैस्तुरंगमैः ।
हारचामरसंयुक्तं प्रोल्लसन्मण्डपाजिरम् ॥ ८ ॥
गवां गणैः सवत्सैश्च वृषैर्धर्मधुरन्धरैः ।
गोपाला यत्र गायन्ते वंशीवेत्रधरा नृप ॥ ९ ॥
वृषभानुवरस्यैवं पश्यन् मन्दिरकौशलम् ।
मायायुवतिवेषोऽसौ ततो ह्यन्तःपुरं ययौ ॥ १० ॥
यत्र कोटिरविस्फूर्जत्कपाटस्तम्भपंक्तयः ।
रत्‍नाजिरेषु शोभन्ते ललनारत्‍नसंयुताः ॥ ११ ॥
वीणातालमृदंगादीन् वादयन्त्यो मनोहराः ।
पुष्पयष्टिसमायुक्ता गायन्त्यो राधिकागुणम् ॥ १२ ॥
तस्मिन्नन्तःपुरे दिव्यं भ्राजच्चोपवनं महत् ।
दाडिमीकुन्दमन्दारनिंबून्नतद्रुमावृतम् ॥ १३ ॥
केतकीमालतीवृंदैः माधवीभिः विराजितम् ।
तत्र राधानिकुंजोऽस्ति कल्पवृक्षसुगन्धिभृत् ॥ १४ ॥

राजा बहुलाश्व बोले—मुने ! श्रीराधाकृष्णके चरित्रको सुनते-सुनते मेरा मन अघाता नहीं — ठीक उसी तरह जैसे शरदऋतुके प्रफुल्ल कमलका रसपान करते समय भ्रमरोंको तृप्ति नहीं होती । ब्रह्मन् ! तपोधन ! श्रीकृष्णपत्नी रासेश्वरीद्वारा तुलसी सेवनका व्रत पूर्ण कर लिये जानेके बाद जो वृत्तान्त घटित हुआ, वह मुझे सुनाइये ॥ १-२ ॥

श्रीनारदजीने कहा- राजन् ! श्रीराधिकाकी तुलसी सेवाके निमित्त की गयी तपस्याको जानकर, उनकी प्रीतिकी परीक्षा लेनेके लिये एक दिन भगवान् श्रीकृष्ण वृषभानुपुरमें गये। उस समय उन्होंने अद्भुत गोपाङ्गनाका रूप धारण कर लिया था। चलते समय उनके पैरोंसे नूपुरोंकी मधुर झनकार हो रही थी । कटिकी करधनीमें लगी हुई क्षुद्रघण्टिकाओंकी भी मधुर खनखनाहट सुनायी पड़ती थी । अङ्गुलियोंमें मुद्रिकाओंकी अपूर्व शोभा थी। कलाइयोंमें रत्नजटित कंगन, बाँहोंमें भुजबंद तथा कण्ठ एवं वक्षःस्थलमें मोतियोंके हार शोभा दे रहे थे। बालरविके समान दीप्तिमान् शीशफूलसे सुशोभित केश-पाशोंकी वेणी -रचनामें अपूर्व कुशलताका परिचय मिलता था। नासिकामें मोतीकी बुलाक हिल रही थी । शरीरकी दिव्य आभा स्निग्ध अलकोंके समान ही श्याम थी। ऐसा रूप धारण करके श्रीहरिने वृषभानुके मन्दिरको देखा । खाई और परकोटोंसे युक्त वह वृषभानु-भवन चार दरवाजोंसे सुशोभित था तथा प्रत्येक द्वारपर काजल वर्णके समानवाले गजराज झूमते थे, जिससे उस राजभवनकी मनोहरता बढ़ गयी थी। उस मण्डपका प्राङ्गण वायु तथा मनके समान वेगशाली एवं हार और चँवरोंसे सुसज्जित विचित्र वर्णवाले अश्वोंसे शोभा पा रहा था । ३-८ ॥

नरेश्वर ! सवत्सा गौओंके समुदाय तथा धर्मधुरंधर वृषभवृन्दसे भी उस भवनकी बड़ी शोभा हो रही थी । बहुत-से गोपाल वहाँ वंशी और बेंत धारण किये गीत गा रहे थे। मायामयी युवतीका वेष धारण किये श्यामसुन्दर उस प्राङ्गणसे अन्तःपुरमें प्रविष्ट हुए, जहाँ कोटि सूर्यों के समान कान्तिमान् कपाटों और खंभोंकी पंक्तियाँ प्रकाश फैला रही थीं । वहाँके रत्न- मण्डित आँगनोंमें बहुत-सी रत्नस्वरूपा ललनाएँ सुशोभित हो रही थीं। वीणा, ताल और मृदङ्ग आदि बाजे बजाती हुई वे मनोहारिणी गोप- सुन्दरियाँ फूलोंकी छड़ी लिये श्रीराधिकाके गुण गा रही थीं। उस अन्तःपुरमें दिव्य एवं विशाल उपवनकी छटा छा रही थी। उसके भीतर अनार, कुन्द, मन्दार, नींबू तथा अन्य ऊँचे-ऊँचे वृक्ष लहलहा रहे थे। केतकी, मालती और माधवी लताएँ उस उपवनको सुशोभित करती थीं। वहीं श्रीराधाका निकुञ्ज था, जिसमें कल्पवृक्षके पुष्पोंकी सुगन्ध भरी थी ॥ -१४

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से 

 



1 टिप्पणी:

  1. 💐🌹💖💐जय श्री हरि:🙏🙏
    ॐ श्री परमात्मने नमः
    जय श्री राधे कृष्णा

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