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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
ग्यारहवाँ
अध्याय ( पोस्ट 03 )
धेनुकासुर का उद्धार
गोवर्धनं
समुत्पाट्य श्रीकृष्णे प्राहिणोत्खरः ।।
गिरिं गृहीत्वा श्रीकृष्णः णाक्षिपत्त स्य मस्तके ।।२१।।
दैत्यो गिरिं गृहीत्वाथ श्रीकृष्णे प्राहिणोद्बली।।
कृष्णो गोवर्धनं नीत्वा पूर्वस्थाने समाक्षिपत् ।।२२।।
पुनर्धावन्महादैत्यः शृङ्गाभ्यां । दारयन्भुवम्।।
बलं पश्चिमपादाभ्यां ताडयित्वा जगर्ज ह।२३।
ननाद तेन ब्रह्मांडं प्रैजद्भूखण्डमण्डलम्।।
हस्ताभ्यां संगृहीत्वा तं बलदेवो महाबलः।।२४।।
भूपृष्ठे पोथयामास मूर्च्छितं भग्नमस्तकम् ।।
पुनस्तताड तं दैत्यं मुष्टिना ह्यच्युताग्रजः ।।२५।।
तेन मुष्टिप्रहारेण सद्यो वै निधनं गतः ।।
तदैव ववृषुर्देवाः पुष्पैर्नन्दनसंभवैः ।। २६ ।।
देहाद्विनिर्गतः सोऽपि श्यामसुन्दरविग्रहः ।।
स्रग्वी पीतांबरो देवो वनमालाविभूषितः ।।२७।।
लक्षपार्षदसंयुक्तः सहस्र ध्वजशोभितः ।।
सहस्रचक्रध्वनिभृद्धयायुतसमन्वितः ।। २८ ।।
लक्षचामरशोभाढ्योऽरुणवर्णोऽतिरत्नभृत् ।।
दिव्ययोजनविस्तीर्णो मनोयायी मनोहरः ।।२९।।
किंकिणीजालसंयुक्तो घटामंजीरसंयुतः ।।
हरिं प्रदक्षिणीकृत्य सबलं दिव्यरूपधृक् ।। ३० ।।
दिव्यं रथं समारुह्य द्योतयन्मंडलन्दिशाम् ।।
जगाम दैत्यो हे राजन्गोलोकं प्रकृतेः परम् ।। ३१ ।।
श्रीकृष्णो धेनुकं हत्वा सबलो बालकैः सह ।।
तद्यशस्तु प्रगायद्भिर्बभौ गोकुलगोगणैः ।। ३२ ।।
श्रीकृष्णने
पर्वतको हाथसे पकड़कर पुनः उसीके मस्तकपर दे मारा। तदनन्तर उस बलवान् दैत्यने फिर पर्वतको
हाथमें ले लिया और श्रीकृष्णके ऊपर फेंका। किंतु श्रीकृष्णने गोवर्धनको ले जाकर उसके
पूर्व स्थानपर रख दिया ॥ २१-२२ ॥
तदनन्तर
फिर धावा करके महादैत्य धेनुक ने दोनों सींगों
से पृथ्वी को विदीर्ण कर दिया और पिछले पैरों से पुनः बलरामपर प्रहार करके बड़े जोरसे गर्जना की। उसकी उस गर्जनासे
समस्त ब्रह्माण्ड गूँज उठा और भूमण्डल काँपने लगा । तब महाबली बलदेवने दोनों हाथोंसे
उसको पकड़ लिया और उसे पृथ्वीपर दे मारा। इससे उसका मस्तक फूट गया और होश- हवास जाता
रहा। इसके बाद श्रीकृष्ण के बड़े भाई ने
पुनः उस दैत्यपर मुक्के से प्रहार किया ॥ २३-२५
॥
उस
मुष्टिप्रहार से धेनुकासुर की तत्काल मृत्यु हो गयी। उसी समय देवताओं ने नन्दनवन के फूल बरसाये ॥ २६ ॥
देह से पृथक् होकर धेनुक श्यामसुन्दर - विग्रह धारणकर पुष्पमाला, पीताम्बर
तथा वनमाला से समलंकृत देवता हो गया। लाख-लाख पार्षद उसकी सेवा में जुट आये। सहस्त्रों ध्वज उसके रथ की शोभा
बढ़ाने लगे। सहस्रों पहियोंकी घर्घरध्वनिसे युक्त उस रथमें दस हजार घोड़े जुते थे।
लाखों चँवरों की वहाँ शोभा हो रही थी। वह रथ अरुणवर्ण का था और अत्यधिक रत्नों से जटित था। उसका विस्तार
एक दिव्य योजन का था। वह मन के समान तीव्रगति से चलनेवाला विमान या रथ बड़ा ही मनोहर था ॥ २७-२९ ॥
राजन्
! उसमें घुँघुरुओंकी जाली लगी थी। घंटे और मञ्जीर बजते थे । दिव्यरूपधारी दैत्य धेनुक
बलरामसहित श्रीकृष्ण- की परिक्रमा करके, उक्त दिव्य रथपर आरूढ़ हो, दिशामण्डलको देदीप्यमान
करता हुआ, प्रकृतिसे परे विद्यमान गोलोकधाममें चला गया। इस प्रकार धेनुक- का वध करके
बलरामसहित श्रीकृष्ण अपना यशोगान करते हुए ग्वाल-बालोंके साथ व्रजको लौटे। उनके साथ
गौओंका समुदाय भी था ॥ ३०-३२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
🌺🍂🌹🥀जय श्रीकृष्ण🙏🙏
जवाब देंहटाएंगोविंदाय नमो नमः
ॐ श्री परमात्मने नमः
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव
नारायण नारायण नारायण नारायण