॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०६)
भगवान् के स्थूल और सूक्ष्म रूपों की धारणा तथा क्रममुक्ति और सद्योमुक्ति का वर्णन
इत्थं मुनिस्तूपरमेद् व्यवस्थितो
विज्ञानदृग्वीर्य सुरन्धिताशयः ।
स्वपार्ष्णिनऽपीड्य गुदं ततोऽनिलं
स्थानेषु षट्सून्नमयेज्जितक्लमः ॥ १९ ॥
नाभ्यां स्थितं हृद्यधिरोप्य तस्माद्
उदुदानगत्योरसि तं नयेन्मुनिः ।
ततोऽनुसन्धाय धिया मनस्वी
स्वतालुमूलं शनकैर्नयेत ॥ २० ॥
तस्माद् भ्रुवोरन्तरमुन्नयेत
निरुद्धसप्तायतनोऽनपेक्षः ।
स्थित्वा मुहूर्तार्धमकुण्ठदृष्टिः
निर्भिद्य मूर्धन् विसृजेत् परं गतः ॥ २१ ॥
ज्ञानदृष्टि के बलसे जिसके चित्त की वासना नष्ट हो गयी है, उस ब्रह्मनिष्ठ योगी को इस प्रकार अपने शरीरका त्याग करना चाहिये। पहले एड़ी से अपनी गुदा को दबाकर स्थिर हो जाय और तब बिना घबड़ाहट के प्राणवायु को षट्चक्रभेदन की रीति से ऊपर ले जाय ॥ १९ ॥ मनस्वी योगी को चाहिये कि नाभिचक्र मणिपूरक में स्थित वायु को हृदयचक्र अनाहत में, वहाँसे उदानवायु के द्वारा वक्ष:स्थल के ऊपर विशुद्ध चक्रमें, फिर उस वायु को धीरे-धीरे तालुमूल में (विशुद्ध चक्र के अग्रभाग में) चढ़ा दे ॥ २० ॥ तदनन्तर दो आँख, दो कान, दो नासाछिद्र और मुख—इन सातों छिद्रों को रोककर उस तालुमूल में स्थित वायुको भौंहोंके बीच आज्ञाचक्रमें ले जाय। यदि किसी लोकमें जानेकी इच्छा न हो तो आधी घड़ीतक उस वायुको वहीं रोककर स्थिर लक्ष्यके साथ उसे सहस्रार में ले जाकर परमात्मा में स्थित हो जाय। इसके बाद ब्रह्मरन्ध्र का भेदन करके शरीर- इन्द्रियादि को छोड़ दे ॥ २१ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
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