शुक्रवार, 9 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) इक्कीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

इक्कीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

गोपाङ्गनाओं के साथ श्रीकृष्णका वन-विहार, रास-क्रीड़ा, मानवती गोपियों को छोड़कर श्रीराधा के साथ एकान्त-विहार तथा मानिनी श्रीराधाको भी छोड़कर उनका अन्तर्धान होना

 

श्रीनारद उवाच -
इत्थं कुंदवने रम्ये मालतीनां वने शुभे ।
आम्राणां नागरंगाणां निंबूनां सघने वने ॥ १ ॥
दाडिमीनां च द्राक्षाणां बदामानां वने नृप ।
कदम्बानां श्रीफलानां कुटजानां तथैव च ॥ २ ॥
वटानां पनसानां च पिप्पलानां वने शुभे ।
तुलसीकोविदाराणां केतकीकदलीवने ॥ ३ ॥
करिल्लकुञ्जबकुलमन्दाराणां वने हरिः ।
चरन्कामवनं प्रागाद्‌राजन् व्रजवधूवृतः ॥ ४ ॥
तत्रैव पर्वते कृष्णो ननाद मुरली कलम् ।
मूर्च्छिता विह्वला जातास्तन्नादेन व्रजांगनाः ॥ ५ ॥
मनोजबाणभिन्नांगाः श्लथन्नीव्यः सुरैः सह ।
कश्मलं प्रययू राजन् विमानेष्वमरांगनाः ॥ ६ ॥
चतुर्विधा जीवसंघाः स्थावरैर्मोहमास्थिताः ।
नद्यो नदाः स्थिरीभूताः पर्वता द्रवतां गताः ॥ ७ ॥
तत्पादचिह्नसंयुक्तो गिरिः कामवनेऽभवत् ।
तस्य दर्शनमात्रेण नरो याति कृतार्थताम् ॥ ८ ॥
अथ गोपीगणैः साकं श्रीकृष्णो राधिकापतिः ।
नंदीश्वरबृहत्सानुतटे रासं चकार ह ।
तत्र गोप्योऽतिमानिन्यो बभूवुर्मैथिलेश्वर ।
तास्त्यक्त्वा राधया सार्धं तत्रैवान्तर्दधे हरिः ॥ १० ॥
गोप्यश्च सर्वा विरहातुरा भृशं
     कृष्णं विना मैथिल निर्जने वने ।
ता बभ्रमुश्चाश्रुकलाकुलाक्ष्यो
     यथा हरिण्यश्चकिता इतस्ततः ॥ ११ ॥
कृष्णं ह्यपश्यन्त्य इति व्यथां गता
     यथा करिण्यः करिणं वने वने ।
यथा कुरर्यः कुररं व्रजांगनाः
     सर्वा रुदन्त्यो विरहातुरा भृशम् ॥ १२ ॥
उन्मत्तवद्‌वृक्षलताकदम्बकं
     सर्वा मिलित्वा च पृथग्वने वने ।
पप्रच्छुरारान्नृप नंदनंदनं
     कुत्र स्थितं तं वदताशु भूरुहाः ॥ १३ ॥
श्रीकृष्ण कृष्णेति गिरा वदन्त्यः
     श्रीकृष्णपादांबुजलग्नमानसाः ।
श्रीकृष्णरूपास्तु बभूवुरंगनाः
     चित्रं न पेशस्कृतमेत्य कीटवत् ॥ १४ ॥
श्रीपादुकाधःस्थलगोपिगोप्यः
     श्रीपादुकाब्जं शरनं प्रपन्नाः ॥ १५ ॥
ततस्तु तत्प्रसादेन तत्पदार्चनदर्शनात् ।
ददृशुर्गां तदा गोप्यो भगवत्पाद चिह्निताम् ॥ १६ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— नरेश्वर ! इस प्रकार रमणीय कुमुदवनमें मालती पुष्पोंके सुन्दर वनमें; आम, नारंगी तथा नींबुओंके सघन उपवनमें: अनार, दाख और बादामोंके विपिनमें; कदम्ब, श्रीफल (बेल) और कुटजोंके काननमें; बरगद, कटहल और पीपलों- के सुन्दर वनमें; तुलसी, कोविदार, केतकी, कदली, करील-कुञ्ज, बकुल (मौलिश्री) तथा मन्दारोंके मनोहर विपिनमें विचरते हुए श्यामसुन्दर व्रज- वधूटियोंके साथ कामवनमें जा पहुँचे ॥ १-४ ॥

वहीं एक पर्वतपर श्रीकृष्णने मधुर स्वरमें बाँसुरी बजायी। उसकी मोहक तान सुनकर व्रजसुन्दरियाँ मूच्छित और विह्वल हो गयीं। राजन् ! आकाशमें देवताओंके साथ विमानोंपर बैठी हुई देवाङ्गनाएँ भी मोहित हो गयीं। कामदेवके बाणोंसे उनके अङ्ग अङ्ग बिंध गये तथा उनके नीबी-बन्ध ढीले होकर खिसकने लगे। स्थावरोंसहित चारों प्रकारके जीवसमुदाय मोहको प्राप्त हो गये, नदियों और नदोंका पानी स्थिर हो गया तथा पर्वत भी पिघलने लगे। कामवनकी पहाड़ी श्यामसुन्दरके चरणचिह्नोंसे युक्त हो गयी, जिसे 'चरण-पहाड़ी' कहते हैं। उसके दर्शनमात्रसे मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है । ५-८ ॥

तदनन्तर राधावल्लभ श्रीकृष्ण ने नन्दीश्वर तथा बृहत्सानुगिरियों के तट प्रान्त में रास - विलास किया। मिथिलेश्वर ! वहाँ गोपियोंको अपने सौभाग्य पर बड़ा अभिमान हो गया, तब श्रीहरि उन सबको वहीं छोड़ श्रीराधाके साथ अदृश्य हो गये। मिथिलानरेश ! उस निर्जन वनमें श्रीकृष्णके बिना समस्त गोपाङ्गनाएँ विरह की आगमें जलने लगीं। उनके नेत्र आँसुओं से भर गये और वे चकित हिरनियों की भाँति इधर-उधर भटकने लगीं ९-११

जैसे वन में हाथी के बिना हथिनियाँ और कुरर के बिना कुररियाँ व्यथित होकर करुण क्रन्दन करती हैं, उसी प्रकार श्रीकृष्ण को न देखकर व्यथित तथा विरहसे अत्यन्त व्याकुल हो ब्रजाङ्गनाएँ फूट- फूटकर रोने लगीं। राजन् ! नरेश्वर ! वे सब की - सब एक साथ मिलकर तथा पृथक्-पृथक् दल बनाकर वन-वनमें जातीं और उन्मत्तकी तरह वृक्षों तथा लता- समूहोंसे पूछतीं— 'तरुओ तथा वल्लरियो ! शीघ्र बताओ, हमारे प्यारे नन्दनन्दन कहाँ जा छिपे हैं ?' ॥१२-१३

अपनी वाणीसे 'श्रीकृष्ण ! श्रीकृष्ण !' कहकर पुकारती थीं। उनका चित्त श्रीकृष्णचरणारविन्दों में ही लगा हुआ था। अतः वे सब अङ्गनाएँ श्रीकृष्णस्वरूपा हो गयीं ठीक उसी तरह जैसे भृङ्गके द्वारा बंद किया हुआ कीड़ा उसी के चिन्तन से भृङ्गरूप हो जाता है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है । श्रीकृष्ण की चरणपादुका से चिह्नित स्थानपर पहुँचकर गोपियाँ श्रीपादुकाब्ज की शरण में गयीं । तदनन्तर भगवान्‌ की ही कृपासे उनके चरणचिह्नके अर्चन और दर्शनसे गोपियों को भगवच्चरणचिह्नों से अलंकृत भूमिका विशेषरूपसे दर्शन होने लगा ॥१४-१६

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



1 टिप्पणी:

  1. 🌼🌿🥀🌹जय श्री हरि:🙏🙏
    ॐ श्री परमात्मने नमः
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
    हे नाथ नारायण वासुदेव
    जयश्री राधा रमण श्री कृष्ण
    जय श्री राधे गोविंद

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