श्रीगर्ग-संहिता
( श्रीवृन्दावनखण्ड
)
अठारहवाँ
अध्याय (पोस्ट 02)
श्रीकृष्ण के द्वारा गोपदेवीरूप से श्रीराधा के प्रेम की परीक्षा तथा
श्रीराधा को श्रीकृष्णका दर्शन
गोपदेवतोवाच -
राधे व्रजन्सानुगिरेस्तटीषु
संकोचवीथीषु मनोहरासु ।
यान्तीं स्वतो मां दधिविक्रयार्थं
रुरोध मार्गे नवनन्दपुत्रः ॥ १४ ॥
वंशीधरो वेत्रकरः करे मां
त्वरं गृहीत्वा प्रसहन्विलज्जः ।
मह्यं करादानधनाय दानं
देहीति जल्पन्विपिने रसज्ञः ॥ १५ ॥
तुभ्यं न दास्यामि कदापि दानं
स्वयंभुवे गोरसलंपटाय ।
एवं मयोक्ते वचनेऽथ भाण्डं
नीत्वा विशीर्णीकृतवान् स दध्नः ॥ १६
॥
भाण्डं स भित्त्वा दधि किं च पीत्वा
नीत्वोत्तरीयं मम चेदुरीयम् ।
नन्दीश्वराद्रेर्विदिशं जगाम
तेनाहमाराद्विमनाः स्म जाता ॥ १७ ॥
जात्या स गोपः किल कृष्णवर्णो
ऽधनी न वीरो न हि शीलरूपः ।
यस्मिंस्त्वया प्रेम कृतं सुशीले
त्यजाशु निर्मोहनमद्य कृष्णम् ॥ १८ ॥
इत्थं सवैरं परुषं वचस्तत्
श्रुत्वा च राधा वृषभानुनन्दिनी ।
सुविस्मिता वाक्यपदे सरस्वती
पदं स्मयन्ती निजगाद तां प्रति ॥ १९
॥
राधोवाच -
यत्प्राप्तये विधिहरप्रमुखास्तपन्ति
वह्नौ तपः परमया निजयोगरीत्या ।
दत्तः शुकः कपिल आसुरिरंगिरा
यत्पादारविन्दमकरन्दरजः स्पृशन्ति ॥
२० ॥
तं कृष्णमादिपुरुषम् परिपूर्णदेवम्
लीलावतारमजमार्तिहरं जनानाम् ।
भूभूरिभारहरणाय सतां शुभाय
जातं विनिन्दसि कथं सखि दुर्विनीते ॥
२१ ॥
गाःपालयन्ति सततं रजसो गवां च
गंगां स्पृशन्ति च जपंति गवां
सुनाम्नाम् ।
प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च
जातिः परा न विदिता भुवि गोपजातेः ॥
२२ ॥
तत्कृष्णवर्णविलसत्सुकलां समीक्ष्य
तस्मिन्विलग्नमनसा सुसुखं विहाय ।
उन्मत्तवद्व्रजति धावति नीलकण्ठो
बिभ्रत्कपर्दविषभस्मकपालसर्पान् ॥ २३
॥
स्वर्लोकसिद्धमुनियक्ष मरुद्गणानां
पालाः समस्तनरकिन्नरनागनाथाः ।
यत्पादपद्ममनिशं प्रणिपत्य भक्त्या
लब्धश्रियः किल बलिं प्रददुः स्म
तस्मै ॥ २४ ॥
वत्साघकालियबकार्जुनधेनुकाना-
माचक्रवातशकटासुरपूतनानाम् ।
एषां वधः किमुत तस्य यशो मुरारे-
र्यः कोटिशोऽण्डनिचयोद्भवनाशहेतुः ॥
२५ ॥
भक्तात्प्रियो न विदितः पुरुषोत्तमस्य
शंभुर्व्हिधिर्न च रमा न च रौहिणेयः
।
भक्ताननुव्रजति भक्ति निबद्ध चित्तः
चुडामणिः सकललोकजनस्य कृष्णः ॥ २६ ॥
गच्छन्निजं जनमनुप्रपुनाति लोका-
नावेदयन् हरिजने स्वरुचिं महात्मा ।
तस्मादतीव भजतां भगवान् मुकुन्दो
मुक्तिं ददाति न कदापि सुभक्तियोगम्
॥ २७ ॥
गोपदेवीने कहा- राधे
! वरसानुगिरिकी घाटियोंमें जो मनोहर साँकरी गली है, उसीसे होकर मैं स्वयं दही बेचने जा रही थी। इतनेमें नन्दजीके नवतरुण
कुमार श्यामसुन्दरने मुझे मार्गमें रोक लिया। उनके हाथमें वंशी और बेंतकी छड़ी थी।
उन रसिकशेखरने लाजको तिलाञ्जलि दे, तुरंत मेरा हाथ पकड़ लिया और जोर-जोर से हँसते हुए,
उस एकान्त वनमें वे इस प्रकार कहने लगे- 'सुन्दरी ! मैं कर लेनेवाला हूँ । अतः तू मुझे
करके रूपमें दहीका दान दे।' मैंने कहा - 'चलो, हटो। अपने-आप कर लेनेवाले बने हुए तुम
जैसे गोरस- लम्पटको मैं कदापि दान नहीं दूँगी।' मेरे इतना कहते ही उन्होंने सिरपरसे
दहीका मटका उतार लिया और उसे फोड़ डाला । मटका फोड़कर थोड़ी-सी दही पीकर मेरी चादर
उतार ली और नन्दीश्वर गिरिकी ईशानकोणवाली दिशाकी ओर वे चल दिये। इससे मैं बहुत अनमनी
हो रही हूँ । जातका ग्वाला, काला-कलूटा रंग, न धनवान् न वीर, न सुशील और न सुरूप ?
सुशीले! ऐसे पुरुषके प्रति तुमने प्रेम किया, यह ठीक नहीं। मैं कहती हूँ, तुम आजसे
शीघ्र ही उस निर्मोही कृष्णको मनसे निकाल दो (उसे सर्वथा त्याग दो) । इस प्रकार वैरभावसे
युक्त कठोर वचन सुनकर वृषभानुनन्दिनी श्रीराधाको बड़ा विस्मय हुआ। वे वाक्य और पदोंके
प्रयोगके सम्बन्धमें सरस्वतीके चरणोंका स्मरण करती हुई उनसे बोलीं- ॥
१४–१९ ॥
श्रीराधाने कहा- सखी!
जिनकी प्राप्तिके लिये ब्रह्मा और शिव आदि देवता अपनी उत्कृष्ट योगरीति से पञ्चाग्निसेवनपूर्वक
तप करते हैं; दत्तात्रेय, शुक, कपिल, आसुरि
और अङ्गिरा आदि भी जिनके चरणारविन्दोंके मकरन्द और परागका सादर स्पर्श करते हैं; उन्हीं
अजन्मा, परिपूर्ण देवता, लीलावतारधारी, सर्वजन दुःखहारी, भूतल - भूरि-भार- हरणकारी
तथा सत्पुरुषोंके कल्याणके लिये यहाँ प्रकट हुए आदिपुरुष श्रीकृष्णकी निन्दा कैसे करती
हो ? तुम तो बड़ी ढीठ जान पड़ती हो। ग्वाले सदा गौओंका पालन करते हैं, गोरजकी गङ्गामें
नहाते हैं, उसका स्पर्श करते हैं तथा गौओंके उत्तम नामोंका जप करते हैं। इतना ही नहीं,
उन्हें दिन-रात गौओंके सुन्दर मुखका दर्शन होता है। मेरी समझमें तो इस भूतलपर गोप-जातिसे
बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है। तुम उसे काला कलूटा बताती हो; किंतु उन श्यामसुन्दर
श्रीकृष्णकी श्याम विभासे विलसित सुन्दर कलाका दर्शन करके उन्हींमें मन लग जानेके कारण
भगवान् नीलकण्ठ औरोंके सुन्दर मुखको छोड़कर जटाजूट, हलाहल विष, भस्म, कपाल और सर्प
धारण किये उस काले-कलूटेके लिये ही पागलोंकी भाँति व्रजमें दौड़ते फिरते हैं ॥ २०-२३ ॥
स्वर्गलोक, सिद्ध, मुनि,
यक्ष और मरुद्गणोंके पालक तथा समस्त नरों, किंनरों और नागोंके स्वामी भी निरन्तर भक्तिभावसे
जिनके चरणारविन्दोंमें प्रणिपात करके उत्कृष्ट लक्ष्मी एवं ऐश्वर्यको पाकर निश्चय ही
उन्हें बलि (कर) समर्पित किया करते हैं, उनको तुम निर्धन कहती हो ? वत्सासुर, अघासुर,
कालियनाग, बकासुर, यमलार्जुन वृक्ष, तृणावर्त, शकटासुर और पूतना आदिका वध (सम्भवतः
तुम्हारी दृष्टिमें उनकी वीरताका परिचायक नहीं है ! मेरा भी ऐसा ही मत है।) उन मुरारिके
लिये क्या यश देनेवाला हो सकता है, जो कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड समूहोंके एकमात्र स्रष्टा
और संहारक हैं ? उन पुरुषोत्तमके लिये भक्तसे बढ़कर कोई प्रिय हो, ऐसा ज्ञात नहीं होता
। शंकर, ब्रह्मा, लक्ष्मी तथा रोहिणीनन्दन बलरामजी भी उनके लिये भक्तोंसे अधिक प्रिय
नहीं हैं। वे भक्तिसे बद्धचित्त होकर भक्तोंके पीछे-पीछे चलते हैं। अतः श्रीकृष्ण केवल
सुशील ही नहीं, समस्त लोकोंके सुजन-समुदायके चूडामणि हैं। वे भक्तोंके पीछे चलते हुए
अपने रोम-रोममें स्थित लोकोंको पवित्र करते रहते हैं। वे परमात्मा अपने भक्तजनोंके
प्रति सदा ही अभिरुचि सूचित करते रहते हैं । अतः अत्यन्त भजन करनेवालोंको भगवान् मुकुन्द
मुक्ति तो अनायास दे देते हैं, किंतु उत्तम भक्तियोग कदापि नहीं देते; क्योंकि उन्हें
भक्तिके बन्धनमें बँधे रहना पड़ता है ॥ २४ - २७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
🌹💖🥀🪔जय श्रीकृष्ण🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
अति सुंदर मन को हर लेने वाला 💟🙏जय श्री राधे गोविंद 🙏🌹🙏