शुक्रवार, 2 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) अठारहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

अठारहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)

 

श्रीकृष्ण के द्वारा गोपदेवीरूप से श्रीराधा के प्रेम की परीक्षा तथा

श्रीराधा को श्रीकृष्णका दर्शन

 

गोपदेवतावाच -
राधे त्वदीयधिषणा धिषणं हसन्ती
     वाणीं श्रुतिं प्रकुशलेन विडंबयन्ती ।
अत्रागमिष्यति यदाथ हरिः परेशः
     सत्यं ददाति वचनं तव देवि मन्ये ॥ २८ ॥


राधोवाच -
यथाऽऽगमिष्यति यदाऽद्य हरिः परेशः
     किं कारयामि भवतीं वद तर्हि सुभ्रु ।
चेदागमो न हि भवेद्‌वनमालिनः स्वं
     सर्वं धनं च भवनं च ददामि तुभ्यम् ॥ २९ ॥


श्रीनारद उवाच -
अथ राधा समुत्थाय नत्वा श्रीनन्दनन्दनम् ।
उपविश्यासने दध्यौ ध्यानस्तिमितलोचना ॥ ३० ॥
उत्कंठितां स्वेदयुक्तां बाष्पकंठीं प्रियां हरिः ।
अश्रुपूर्णमुखीं वीक्ष्य बिभ्रत्स्वां पौरुषीं तनुम् ॥ ३१ ॥
पश्यन्तीनां सखीनां च सहसा भक्तवत्सलः ।
राधां प्राह प्रसन्नात्मा मेघगंभीरया गिरा ॥ ३२ ॥


श्रीकृष्ण उवाच -
रंभोरु चन्द्रवदने व्रजसुन्दरीशे
     राधे प्रिये नवलयौवनमानशीले ।
उमील्य नेत्रमपि पश्य समागतं मां
     तूर्णं त्वया मधुरया च गिरोपहूतम् ॥ ३३ ॥
आगच्छ कृष्ण इति वाक्यमतः श्रुतं मे
     सद्यो विसृज्य निजगोकुलगोपवृन्दम् ।
वंशीवटाच्च यमुनानिकटात्प्रधावन्
     त्वत्प्रीतयेऽथ ललनेत्र समागतोऽस्मि ॥ ३४ ॥
मय्यागते सति गता सखिरूपिणी का

 यक्ष्यासुरीसुरवधू किल किन्नरी वा ।

मायावती छलयितुं भवतीं च तस्मा-
     द्विश्वास एव न विधेय उरंगपत्‍न्याम् ॥ ३५ ॥


श्रीनारद उवाच -
अथ राधा हरिं दृष्ट्वा नत्वा तत्पादपंकजम् ।
मुदमाप परं राजन् सद्यः पूर्णमनोरथा ॥ ३६ ॥
एवं श्रीकृष्णचन्द्रस्य चरितान्यद्‌भुतानि च ।
यः शृणोति नरो भक्त्या स कृतार्थो भवेन्नरः ॥ ३७ ॥

 

गोपदेवी बोली- श्रीराधे ! तुम्हारी बुद्धि बृहस्पतिका भी उपहास करती है और वाणी अपने प्रवचन - कौशलसे वेदवाणीका अनुकरण करती है। किंतु देवि ! तुम्हारे बुलानेसे यदि परमेश्वर श्रीकृष्ण सचमुच यहाँ आ जायँ और तुम्हारी बातका उत्तर दें, तब मैं मान लूँगी कि तुम्हारा कथन सच है ॥ २८ ॥

श्रीराधा बोलीं- शुभ्रु ! यदि परमेश्वर श्रीकृष्ण मेरे बुलानेसे यहाँ आ जायँ, तब मैं तुम्हारे प्रति क्या करूँ, यह तुम्हीं बताओ। परंतु अपनी ओरसे इतना ही कह सकती हूँ कि यदि मेरे स्मरण करनेसे वनमाली का शुभागमन नहीं हुआ तो मैं अपना सारा धन और यह भवन तुम्हें दे दूँगी ॥ २९ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! तदनन्तर श्रीराधा उठकर श्रीनन्दनन्दनको नमस्कार करके आसनपर बैठ गयीं और उनका ध्यान करने लगीं। उस समय उनके नेत्र ध्यानरत होनेके कारण निश्चल हो गये थे । श्रीहरिने देखा - 'प्रियतमा श्रीराधा मेरे दर्शनके लिये उत्कण्ठित हैं । इनके अङ्ग अङ्गमें स्वेद (पसीना) हो आया है और मुखपर आँसुओंकी धारा बह चली है।' यह देख अपना पुरुषरूप धारण करके भक्तवत्सल श्रीकृष्ण सखियोंके देखते-देखते सहसा वहाँ प्रकट हो गये और प्रसन्नचित्त हो घनगर्जनके समान गम्भीर वाणीमें श्रीराधासे बोले || ३०–३२ ॥

श्रीकृष्णने कहा— रम्भोरु ! व्रज-सुन्दरी-शिरोमणे ! चन्द्रवदने ! नूतनयौवनशालिनि ! मानशीले ! प्रिये राधे ! तुमने अपनी मधुरवाणीसे मुझे बुलाया है, इसलिये मैं तुरंत यहाँ आ गया हूँ। अब आँख खोलकर मुझे देखो। ललने ! 'प्रियतम कृष्ण ! आओ' – यह वाक्य यहाँसे प्रकट हुआ और मैंने सुना। फिर उसी क्षण अपने गोकुल और गोपवृन्दको छोड़कर, वंशीवट और यमुनाके तटसे वेगपूर्वक दौड़ता हुआ तुम्हारी प्रसन्नताके लिये यहाँ आ पहुँचा हूँ । मेरे आते ही कोई सखीरूपधारिणी यक्षी, आसुरी, देवाङ्गना अथवा किनरी, जो कोई भी मायाविनी तुम्हें छलनेके लिये आयी थी, यहाँसे चल दी। अतः तुम्हें ऐसी नागिन पर विश्वास ही नहीं करना चाहिये ॥ ३३-३५ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— तदनन्तर श्रीराधा श्रीहरिको देखकर उनके चरण-कमलोंमें प्रणत हो परमानन्दमें निमग्न हो गयीं। उनका मनोरथ तत्काल पूर्ण हो गया। श्रीकृष्णचन्द्रके ऐसे अद्भुत चरित्रोंका जो भक्तिभावसे श्रवण करता है, वह मनुष्य कृतार्थ हो जाता है ।। ३६-३७ ।।


इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'श्रीराधाको श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन' नामक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 

 



1 टिप्पणी:

  1. 🌺💖🌹💐जय श्रीहरि:🙏🙏
    ॐ श्री परमात्मने नमः
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
    हे नाथ नारायण वासुदेव
    राधे कृष्णा राधे कृष्णा राधे कृष्णा

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