॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
भगवान् के लीलावतारों की कथा
विद्धः सपत्न्युदितपत्रिभिरन्ति राज्ञो ।
बालोऽपि सन्नुपगतस्तपसे वनानि ।
तस्मा अदाद् ध्रुवगतिं गृणते प्रसन्नो ।
दिव्याः स्तुवन्ति मुनयो यदुपर्यधस्तात् ॥ ८ ॥
यद्वेनमुत्पथगतं द्विजवाक्यवज्र ।
निष्प्लुष्टपौरुषभगं निरये पतन्तम् ।
त्रात्वाऽर्थितो जगति पुत्रपदं च लेभे ।
दुग्धा वसूनि वसुधा सकलानि येन ॥ ९ ॥
नाभेरसावृषभ आस सुदेविसूनुः ।
यो वै चचार समदृग् जडयोगचर्याम् ।
यत्पारमहंस्यमृषयः पदमामनन्ति ।
स्वस्थः प्रशान्तकरणः परिमुक्तसङ्गः ॥ १० ॥
अपने पिता राजा उत्तानपादके पास बैठे हुए पाँच वर्षके बालक ध्रुवको उनकी सौतेली माता सुरुचिने अपने वचन-बाणोंसे बेध दिया था। इतनी छोटी अवस्था होनेपर भी वे उस ग्लानिसे तपस्या करनेके लिये वनमें चले गये। उनकी प्रार्थनासे प्रसन्न होकर भगवान् प्रकट हुए और उन्होंने ध्रुवको ध्रुवपदका वरदान दिया। आज भी ध्रुवके ऊपर-नीचे प्रदक्षिणा करते हुए दिव्य महर्षिगण उनकी स्तुति करते रहते हैं ॥ ८ ॥
कुमार्गगामी वेनका ऐश्वर्य और पौरुष ब्राह्मणोंके हुंकाररूपी वज्रसे जलकर भस्म हो गया। वह नरकमें गिरने लगा। ऋषियोंकी प्रार्थनापर भगवान्ने उसके शरीरमन्थनसे पृथुके रूपमें अवतार धारण कर उसे नरकोंसे उबारा और इस प्रकार ‘पुत्र’ [*] शब्दको चरितार्थ किया। उसी अवतारमें पृथ्वीको गाय बनाकर उन्होंने उससे जगत्के लिये समस्त ओषधियोंका दोहन किया ॥ ९ ॥
राजा नाभिकी पत्नी सुदेवीके गर्भसे भगवान्ने ऋषभदेवके रूपमें जन्म लिया। इस अवतारमें समस्त आसक्तियोंसे रहित रहकर, अपनी इन्द्रियों और मनको अत्यन्त शान्त करके एवं अपने स्वरूपमें स्थित होकर समदर्शीके रूपमें उन्होंने जड़ोंकी भाँति योगचर्याका आचरण किया। इस स्थितिको महर्षिलोग परमहंसपद अथवा अवधूतचर्या कहते हैं ॥ १० ॥
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[*] ‘पुत्र’ शब्दका अर्थ ही है ‘पुत्’ नामक नरकसे रक्षा करनेवाला।
शेष आगामी पोस्ट में --
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ॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव
नारायण नारायण नारायण नारायण