श्रीगर्ग-संहिता
( श्रीवृन्दावनखण्ड
)
पचीसवाँ
अध्याय (पोस्ट 01)
शिव
और आसुरि का गोपीरूप से रासमण्डल में श्रीकृष्णका दर्शन और स्तवन करना तथा उनके वरदान से वृन्दावन में नित्य-निवास पाना
श्रीनारद उवाच -
एवं विचिन्त्य मनसा शिवो वाऽऽसुरिणा सह ।
तौ कृष्णदर्शनार्थाय जग्मतुर्व्रजमण्डलम् ॥ १ ॥
दिव्यद्रुमलताकुञ्जतोलिकापुंजशोभिताम् ।
पश्यन्तौ तौ दिव्यभूमिं कालिन्दीनिकटे गतौ ॥ २ ॥
गोलोकवासिन्यो नार्यो वेत्रहस्ता महाबलाः ।
चक्रुर्बलात्तन्निषेधं मार्गस्था द्वारपालिकाः ॥ ३ ॥
तावूचतुश्चागतौ स्वः कृष्णदर्शनलालसौ ।
तावाहुर्नृपशार्दूल मार्गस्था द्वारपालिकाः ॥ ४ ॥
द्वारपालिका ऊचुः -
सर्वतो वृंदकारिण्यं कोटिशः कोटिशो वयम् ।
रासरक्षां सदा कुर्मो न्यस्ता कृष्णेन भो द्विजौ ॥ ५ ॥
एकोऽस्ति पुरुषः कृष्णो निर्जने रासमण्डले ।
अन्यो न याति रहसि गोपीयूथं विना क्वचित् ॥ ६ ॥
चेद्दिदृक्षू युवां तस्य स्नानं मानसरोवरे ।
कुरुतं तत्र गोपीत्वं प्राप्याशु व्रजतं मुनी ॥ ७ ॥
श्रीनारद उवाच -
इत्युक्तौ तौ मुनिशिवौ स्नात्वा मानसरोवरे ।
गोपीत्वं प्राप्य सहसा जग्मतू रासमण्डले ॥ ८ ॥
सौवर्णप्रखचित्पद्मरागभूमि मनोहरे ।
माधवीलतिकावृन्दकदंबाच्छादिते शुभे ॥ ९ ॥
वसंतचंद्रकौमुद्या प्रदीप्ते सर्वकौशले ।
यमुनारत्नसोपानतोलिकाभिर्विराजिते ॥ १० ॥
मयूरहंसदात्यूहकोकिलैः कूजिते परे ।
यमुनानिलनीलैजत्तरुपल्लवशोभिते ॥ ११ ॥
सभामण्डपवीथीभिः प्रांगणस्तम्भपंक्तिभिः ।
पतत्पताकैर्दिव्याभैः सौवर्णैः कलशैर्वृते ॥ १२ ॥
श्वेतारुणैः पुष्पसंघैः पुष्पमंदिरवर्त्मभिः ।
अलिकोलाहलैर्व्याप्ते वादित्रमधुरध्वनौ ॥ १३ ॥
सहस्रदलपद्मानां वायुना मंदगामिना ।
शीतलेन सुपुण्येन सर्वतः सुरभीकृते ॥ १४ ॥
तस्मिन्निकुंजे श्रीकृष्णं कोटिचंद्रप्रकाशया ।
पद्मिन्या हंसगामिन्या राधया समलंकृतम् ॥ १५ ॥
स्त्रीरत्नैरावृतं शश्वद्रासमण्डलमध्यगम् ।
कोटिमन्मथलावण्यं श्यामसुंदरविग्रहम् ॥ १६ ॥
वंशीधरं पीतपटं वेत्रपाणिं मनोहरम् ।
श्रीवत्सांकं कौस्तुभिनं वनमालाविराजितम् ॥ १७ ॥
क्वणन्नूपुरमंजीर कांचिकेयूरभूषितम् ।
हारकंकण बालार्क कुंडलद्वयमंडितम् ॥ १८ ॥
कोटिचंद्रप्रतीकाशमौलिनं नंदनंदनम् ।
दानदक्षैः कटाक्षैश्च हरन्तं योषितां मनः ॥ १९ ॥
दूरादपश्यतां राजन् आसुरीशौ कृतांजली ।
गोपीजनानां सर्वेषां पश्यतां नृपसत्तम ॥ २० ॥
श्रीनारदजी कहते हैं—
राजन् ! भगवान् शिव आसुरि के साथ सम्पूर्ण हृदयसे ऐसा निश्चय
करके वहाँसे चले। वे दोनों श्रीकृष्णदर्शनके लिये व्रज- मण्डल में
गये । वहाँकी भूमि दिव्य वृक्षों, लताओं, कुञ्जों और गुमटियोंसे सुशोभित थी । उस दिव्य
भूमिका दर्शन करते हुए दोनों ही यमुनातटपर गये ॥१-२॥
उस समय अत्यन्त बलशालिनी
गोलोकवासिनी गोप- सुन्दरियाँ हाथमें बेंतकी छड़ी लिये वहाँ पहरा दे रही थीं। उन द्वारपालिकाओंने
मार्गमें स्थित होकर उन्हें बलपूर्वक रासमण्डलमें जानेसे रोका। वे दोनों बोले— 'हम
श्रीकृष्णदर्शनकी लालसासे यहाँ आये हैं।' नृपश्रेष्ठ ! तब राह रोककर खड़ी द्वारपालिकाओं ने उन दोनोंसे कहा ॥ ३-४ ॥
द्वारपालिकाएँ बोलीं-
विप्रवरो ! हम कोटि- कोटि गोपाङ्गनाएँ वृन्दावनको चारों ओरसे घेरकर निरन्तर रासमण्डलकी
रक्षा कर रही हैं। इस कार्यमें श्यामसुन्दर श्रीकृष्णने ही हमें नियुक्त किया है। इस
एकान्त रासमण्डलमें एकमात्र श्रीकृष्ण ही पुरुष हैं । उस पुरुषरहित एकान्त स्थानमें
गोपीयूथके सिवा दूसरा कोई कभी नहीं जा सकता। मुनियो ! यदि तुम दोनों उनके दर्शनके अभिलाषी
हो तो इस मानसरोवरमें स्नान करो । वहाँ तुम्हें शीघ्र ही गोपीस्वरूपकी प्राप्ति हो
जायगी, तब तुम रासमण्डलके भीतर जा सकते हो ॥ ५ – ७ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं—
द्वारपालिकाओंके यों कहनेपर वे मुनि और शिव मानसरोवरमें स्नान करके, गोपी भावको प्राप्त
हो, सहसा रासमण्डल में गये ॥ ८ ॥
सुवर्णजटित पद्मरागमयी
भूमि उस रासमण्डलकी मनोहरता बढ़ा रही थी। वह सुन्दर प्रदेश माधवीलता- समूहोंसे व्याप्त
और कदम्बवृक्षोंसे आच्छादित था । वसन्त ऋतु तथा चन्द्रमाकी चाँदनीने उसको प्रदीप्त
कर रखा था। सब प्रकारकी कौशलपूर्ण सजावट वहाँ दृष्टिगोचर होती थी। यमुनाजीकी रत्नमयी
सीढ़ियों तथा तोलिकाओंसे रासमण्डलकी अपूर्व शोभा हो रही थी ॥९-१०॥
मोर, हंस, चातक और कोकिल
वहाँ अपनी मीठी बोली सुना रहे थे। वह उत्कृष्ट प्रदेश यमुनाजीके जलस्पर्शसे शीतल-मन्द
वायुके बहनेसे हिलते हुए, तरुपल्लवोंद्वारा बड़ी शोभा पा रहा था । सभामण्डपों और वीथियोंसे,
प्राङ्गणों और खंभोंकी पंक्तियोंसे, फहराती हुई दिव्य पताकाओंसे और सुवर्णमय कलशोंसे
सुशोभित तथा श्वेतारुण पुष्पसमूहोंसे सज्जित तथा पुष्पमन्दिर और मार्गोंसे एवं भ्रमरोंकी
गुंजारों और वाद्योंकी मधुर ध्वनियोंसे व्याप्त रासमण्डलकी शोभा देखते ही बनती थी ॥११-१३॥
सहस्रदलकमलों की सुगन्धसे पूरित शीतल, मन्द एवं परम पुण्यमय समीर सब ओरसे उस स्थानको
सुवासित कर रहा था। रास- मण्डलके निकुञ्जमें कोटि-कोटि चन्द्रमाओंके समान प्रकाशित
होनेवाली पद्मिनी नायिका हंसगामिनी श्रीराधासे सुशोभित श्रीकृष्ण विराजमान थे। रास
मण्डल के भीतर निरन्तर स्त्रीरत्नों से
घिरे हुए श्यामसुन्दरविग्रह श्रीकृष्णका लावण्य करोड़ों कामदेवोंको लज्जित करनेवाला
था। हाथमें वंशी और बेंत लिये तथा श्रीअङ्गपर पीताम्बर धारण किये वे बड़े मनोहर जान
पड़ते थे। उनके वक्षःस्थलमें श्रीवत्सका चिह्न, कौस्तुभमणि तथा वनमाला शोभा दे रही
थी । झंकारते हुए नूपुर, पायजेब, करधनी और बाजूबंद से वे विभूषित
थे। हार, कङ्कण तथा बालरवि के समान कान्तिमान् दो कुण्डलों से वे मण्डित थे। करोड़ों चन्द्रमाओं की कान्ति
उनके आगे फीकी जान पड़ती थी। मस्तकपर मोरमुकुट धारण किये वे नन्द-नन्दन मनोरथ दान-दक्ष कटाक्षों द्वारा युवतियों का मन हर लेते थे ॥१४-१९॥
राजन् आसुरि और शिव
— दोनों ने दूर से ही जब श्रीकृष्णको देखा
तो हाथ जोड़ लिये । नृपश्रेष्ठ ! समस्त गोपसुन्दरियोंके देखते-देखते श्रीकृष्ण- चरणारविन्दमें
मस्तक झुकाकर, आनन्दविह्वल हुए उन दोनोंने कहा ॥ २० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
🌹💖🍂🥀जय श्रीहरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव
जय गोपीजन वल्लभ राधे गोविंद