॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
भगवान् के लीलावतारों की कथा
सत्रे ममाऽस भगवान् हयशीर्ष एव ।
साक्षात् स यज्ञपुरुषः तपनीयवर्णः ।
छन्दोमयो मखमयोऽखिलदेवतात्मा ।
वाचो बभूवुरुशतीः श्वसतोऽस्य नस्तः ॥ ११ ॥
मत्स्यो युगान्तसमये मनुनोपलब्धः ।
क्षोणीमयो निखिलजीवनिकायकेतः ।
विस्रंसितानुरुभये सलिले मुखान्मे ।
आदाय तत्र विजहार ह वेदमार्गान् ॥ १२ ॥
क्षीरोदधावमरदानवयूथपानाम् ।
उन्मथ्नताममृतलब्धय आदिदेवः ।
पृष्ठेन कच्छपवपुर्विदधार गोत्रं ।
निद्राक्षणोऽद्रिपरिवर्तकषाणकण्डूः ॥ १३ ॥
इसके बाद स्वयं उन्हीं यज्ञपुरुष ने मेरे यज्ञमें स्वर्ण के समान कान्तिवाले हयग्रीव के रूप में अवतार ग्रहण किया। भगवान् का वह विग्रह वेदमय, यज्ञमय और सर्वदेवमय है। उन्हींकी नासिकासे श्वासके रूपमें वेदवाणी प्रकट हुई ॥ ११ ॥
चाक्षुष मन्वन्तरके अन्तमें भावी मनु सत्यव्रतने मत्स्यरूपमें भगवान् को प्राप्त किया था। उस समय पृथ्वीरूप नौका के आश्रय होनेके कारण वे ही समस्त जीवोंके आश्रय बने। प्रलयके उस भयंकर जलमें मेरे मुखसे गिरे हुए वेदोंको लेकर वे उसीमें विहार करते रहे ॥ १२ ॥
जब मुख्य-मुख्य देवता और दानव अमृतकी प्राप्तिके लिये क्षीरसागरको मथ रहे थे, तब भगवान् ने कच्छप के रूपमें अपनी पीठपर मन्दराचल धारण किया। उस समय पर्वतके घूमनेके कारण उसकी रगड़से उनकी पीठकी खुजलाहट थोड़ी मिट गयी, जिससे वे कुछ क्षणोंतक सुखकी नींद सो सके ॥ १३ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🌹💖🌹🥀जय श्रीहरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण