श्रीगर्ग-संहिता
( श्रीवृन्दावनखण्ड
)
छब्बीसवाँ
अध्याय (पोस्ट 01)
श्रीकृष्णका
विरजाके साथ विहार; श्रीराधाके भयसे विरजाका नदीरूप होना, उसके सात पुत्रोंका उसी शापसे
सात समुद्र होना तथा राधाके शापसे श्रीदामाका अंशतः शङ्खचूड होना
श्रीबहुलाश्व
उवाच -
अघासुरादिदैत्यानां ज्योतिः कृष्णे समाविशत् ।
श्रीदाम्नि शंखचूडस्य कस्माल्लीनं बभूव ह ॥ १ ॥
एतद्वद महाबुद्धे त्वं परावरवित्तम ।
अहो श्रीकृष्णचंद्रस्य चरितं परमाद्भुतम् ॥ २ ॥
पुरा गोलोकवृत्तान्तं नारायणमुखाच्छ्रुतम् ।
सर्वपापहरं पुण्यं शृणु राजन् महामते ॥ ३ ॥
राधा श्रीर्विरजा भूश्च तिस्रः पत्न्योऽभवन्हरेः ।
तासां राधा प्रियाऽतीव श्रीकृष्णस्य महात्मनः ॥ ४ ॥
राधिकासमया राजन् कोटिचंद्रप्रकाशया ।
कुंजे विरजया रेमे एकान्ते चैकदा प्रभुः ॥ ५ ॥
सपत्नीसहितं कृष्णं राधा श्रुत्वा सखीमुखात् ।
अतीव विमना जाता सपत्नीसौख्यदुःखिता ॥ ६ ॥
शतयोजनविस्तारं शतयोजनमूर्ध्वगम् ।
कोट्यश्विनीसमायुक्तं कोटिसूर्यसमप्रभम् ॥ ७ ॥
विचित्रवर्णसौवर्णमुक्तादामविलंबितम् ।
पताकाहेमकलशैः कोटिभिर्मंडितं रथम् ॥ ८ ॥
समारुह्य सखीनां सा वेत्रहस्तैर्दशार्बुदैः ।
हरिं द्रष्टुं जगामाशु श्रीराधा भगवत्प्रिया ॥ ९ ॥
तन्निकुंजे द्वारपालं श्रीदामानं महाबलम् ।
हरिन्यस्तं समालोक्य तं निर्भर्त्स्य सखीजनैः ॥ १० ॥
वेत्रैः सन्ताड्य सहसा द्वारि गन्तुं समुद्यता ।
सखीकोलाहलं श्रुत्वा हरिरंतरधीयत ॥ ११ ॥
राधाभयाच्च विरजा नदी भूत्वाऽवहत्तदा ।
कोटियोजनमायामं गोलोकं सहसा नदी ॥ १२ ॥
सहसा कुण्डलीकृत्वा शुशुभेऽब्धिरिवावनिम् ।
रत्नपुष्पैर्विचित्रांगा यथोष्णिङ्मुद्रिता तथा ॥ १३ ॥
हरिं गतं तं विज्ञाय नदीभूतां च तां तथा ।
आलोक्य तन्निकुञ्जं च स्वकुञ्जं राधिका ययौ ॥ १४ ॥
बहुलाश्वने पूछा- महामते
देवर्षे ! आप परावरवेत्ताओंमें श्रेष्ठ हैं। अतः यह बताइये कि अघासुर आदि दैत्योंकी
ज्योति तो भगवान् श्रीकृष्णमें प्रविष्ट हुई थी, परंतु शङ्खचूडका तेज श्रीदामामें लीन
हुआ, इसका क्या कारण है ? अहो ! श्रीकृष्णचन्द्रका चरित्र अत्यन्त अद्भुत है ॥ १-२
॥
श्रीनारदजी बोले – महामते
नरेश ! यह पूर्वकालमें घटित गोलोकका वृत्तान्त है, जिसे मैंने भगवान् नारायण के मुखसे सुना था । यह सर्वपाप- हारी पुण्य-प्रसङ्ग तुम मुझसे सुनो।
श्रीहरिके तीन पत्नियाँ हुईं – श्रीराधा, विजया (विरजा) और भूदेवी । इन तीनोंमें महात्मा
श्रीकृष्णको श्रीराधा ही अधिक प्रिय हैं। राजन् ! एक दिन भगवान् श्रीकृष्ण एकान्त कुञ्जमें
कोटि चन्द्रमाओंकी-सी कान्तिवाली तथा श्रीराधिका - सदृश सुन्दरी विरजाके साथ बिहार
कर रहे थे। सखीके मुखसे यह सुनकर कि श्रीकृष्ण मेरी सौतके साथ हैं, श्रीराधा मन-ही-मन
अत्यन्त खिन्न हो उठीं। सपत्नीके सौख्यसे उनको दुःख हुआ, तब भगवत्-प्रिया श्रीराधा
सौ योजन विस्तृत, सौ योजन ऊँचे और करोड़ों अश्विनियोंसे जुते सूर्यतुल्य- कान्तिमान्
रथपर — जो करोड़ों पताकाओं और सुवर्ण- कलशोंसे मण्डित था तथा जिसमें विचित्र रंगके
रत्नों, सुवर्ण और मोतियोंकी लड़ियाँ लटक रही थीं- आरूढ़ हो, दस अरब वेत्रधारिणी सखियोंके
साथ तत्काल श्रीहरिको देखनेके लिये गयीं। उस निकुञ्जके द्वारपर श्रीहरिके द्वारा नियुक्त
महाबली श्रीदामा पहरा दे रहा था। उसे देखकर श्रीराधाने बहुत फटकारा और सखीजनोंद्वारा
बेंतसे पिटवाकर सहसा कुञ्जद्वारके भीतर जानेको उद्यत हुईं। सखियोंका कोलाहल सुनकर श्रीहरि
वहाँसे अन्तर्धान हो गये । ३ – ११ ॥
श्रीराधाके भयसे विरजा
सहसा नदीके रूपमें परिणत हो, कोटियोजन विस्तृत गोलोक में उसके
चारों ओर प्रवाहित होने लगीं। जैसे समुद्र इस भूतल को घेरे हुए
है, उसी प्रकार विरजा नदी सहसा गोलोक को अपने घेरेमें लेकर बहने
लगीं। रत्नमय पुष्पोंसे विचित्र अङ्गोंवाली वह नदी विविध प्रकारके फूलोंकी छापसे अङ्कित
उष्णीष वस्त्रकी भाँति शोभा पाने लगीं 'श्रीहरि चले गये और विरजा नदीरूपमें परिणत हो
गयी' – यह देख श्रीराधिका अपने कुञ्जको लौट गयीं ॥ १२-१४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
🙏🙏जय श्री हरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव
जय श्री राधे गोविंद