॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)
भगवान् के लीलावतारों की कथा
तुभ्यं च नारद भृशं भगवान्विवृद्ध ।
भावेन साधु परितुष्ट उवाच योगम् ।
ज्ञानं च भागवतमात्मसतत्त्वदीपं ।
यद्वासुदेवशरणा विदुरञ्जसैव ॥ १९ ॥
चक्रं च दिक्ष्वविहतं दशसु स्वतेजो ।
मन्वन्तरेषु मनुवंशधरो बिभर्ति ।
दुष्टेषु राजसु दमं व्यदधात्स्वकीर्तिं ।
सत्ये त्रिपृष्ठ उशतीं प्रथयंश्चरित्रैः ॥ २० ॥
धन्वन्तरिश्च भगवान् स्वयमेव कीर्तिः ।
नाम्ना नृणां पुरुरुजां रुज आशु हन्ति ।
यज्ञे च भागममृतायुरवावचन्ध ।
आयुश्च वेदमनुशास्त्यवतीर्य लोके ॥ २१ ॥
क्षत्रं क्षयाय विधिनोपभृतं महात्मा ।
ब्रह्मध्रुगुज्झितपथं नरकार्तिलिप्सु ।
उद्धन्त्यसाववनिकण्टकमुग्रवीर्यः ।
त्रिःसप्तकृत्व उरुधारपरश्वधेन ॥ २२ ॥
(ब्रह्माजी कहरहे हैं) नारद ! तुम्हारे अत्यन्त प्रेमभावसे परम प्रसन्न होकर हंसके रूपमें भगवान्ने तुम्हें योग, ज्ञान और आत्मतत्त्वको प्रकाशित करनेवाले भागवतधर्मका उपदेश किया। वह केवल भगवान्के शरणागत भक्तोंको ही सुगमतासे प्राप्त होता है ॥ १९ ॥ वे ही भगवान् स्वायम्भुव आदि मन्वन्तरोंमें मनुके रूपमें अवतार लेकर मनुवंशकी रक्षा करते हुए दसों दिशाओंमें अपने सुदर्शनचक्रके समान तेजसे बेरोक-टोक—निष्कण्टक राज्य करते हैं। तीनों लोकोंके ऊपर सत्यलोकतक उनके चरित्रोंकी कमनीय कीर्ति फैल जाती है और उसी रूपमें वे समय-समयपर पृथ्वीके भारभूत दुष्ट राजाओंका दमन भी करते रहते हैं ॥ २० ॥
स्वनामधन्य भगवान् धन्वन्तरि अपने नामसे ही बड़े-बड़े रोगियोंके रोग तत्काल नष्ट कर देते हैं। उन्होंने अमृत पिलाकर देवताओंको अमर कर दिया और दैत्योंके द्वारा हरण किये हुए उनके यज्ञ-भाग उन्हें फिर से दिला दिये। उन्होंने ही अवतार लेकर संसार में आयुर्वेद का प्रवर्तन किया ॥२१॥
जब संसार में ब्राह्मणद्रोही आर्यमर्यादा का उल्लङ्घन करने वाले नारकीय क्षत्रिय अपने नाश के लिये ही दैववश बढ़ जाते हैं और पृथ्वी के काँटे बन जाते हैं, तब भगवान् महापराक्रमी परशुराम के रूपमें अवतीर्ण होकर अपनी तीखी धारवाले फरसे से इक्कीस बार उनका संहार करते हैं॥२२॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🪷🌹🥀🪷जय श्रीहरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव
नारायण नारायण हरि: !! हरि: !!