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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
छब्बीसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
श्रीकृष्णका विरजाके
साथ विहार; श्रीराधाके भयसे विरजाका नदीरूप होना, उसके सात पुत्रोंका उसी शापसे सात
समुद्र होना तथा राधाके शापसे श्रीदामाका अंशतः शङ्खचूड होना
श्रीनारद उवाच -
इति श्त्वाऽथ भगवान् तन्निकुंजं जगाम ह ॥ ३१ ॥
श्रीकृष्ण मित्रं श्रीदामा राधां प्राह रुषा वचः ।
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान् स्वयम् ॥ ३२ ॥
असंख्यब्रह्मांडपतिर्गोलोकेषु विराजते ।
त्वादृशीः कोटिशः शक्तीः कर्तुं शक्तः परात्परः ॥ ३३ ॥
तं विनिंदसि राधे त्वं मानं मा कुरु मा कुरु ।
राधोवाच -
हे मूढ पितरं स्तुत्वा मातरं मां विनिन्दसि ॥ ३४ ॥
राक्षसो भव दुर्बुद्धे गोलोकाच्च बहिर्भव ।
श्रीदामोवाच -
अनुकूलेन कृष्णेन जातं मानं शुभे तव ॥ ३५ ॥
तस्माद्भुवि परात्कृष्णात् परिपूर्णतमात्प्रभो ।
शतवर्षं ते वियोगो भविष्यति न संशयः ॥ ३६ ॥
श्रीनारद उवाच -
एवं परस्परं शापात् स्वकृताद्भयभीतयोः ।
अतीव चिन्तां गतयोराविरासीत्स्वयं प्रभुः ॥ ३७ ॥
श्रीभगवानुवाच -
वचनं वै स्वनिगमं दूरीकृर्तुं क्षमोऽस्म्यहम् ।
भक्तानां वचनं राधे दूरीकर्तुं न च क्षमः ॥ ३८ ॥
मा शोचं कुरु कल्याणि वरं मे शृणु राधिके ।
मासं मासं वियोगांते दर्शनं मे भविष्यति ॥ ३९ ॥
भुवो भारावताराय कल्पे वाराहसंज्ञके ।
भक्तानां दर्शनं दातुं गमिष्यामि त्वया सह ॥ ४० ॥
श्रीदमन् शृणु मे वाक्यमंशेन त्वसुरो भव ।
वैवस्वतान्तरे रासे हेलनं मे करिष्यसि ॥ ४१ ॥
मद्धस्तेन च ते मृत्युर्भविष्यति न संशयः ।
पुनः स्वविरहं पूर्वं प्राप्स्यसि त्वं वरान्मम ॥ ४२ ॥
श्रीनारद उवाच -
एवं शापेन श्रीदामा पुरा पुण्यजनालये ।
सुधनस्य गृहे जन्म लेभे राजन् महातपाः ॥ ४३ ॥
शंखचूड इति ख्यातो धनदानुचरोऽभवत् ।
तस्माच्छ्रीदाम्नि तज्ज्योतिः लीनं जातं विदेहराट् ॥ ४४ ॥
स्वात्मारमो लीलया सर्वकार्यं
स्वस्मिन् धाम्नि ह्यद्वितीयः करोति
।
यः सर्वेशः सर्वरूपो महात्मा
चित्रं नेदं नौमि कृष्णाय तस्मै ॥ ४५
॥
इदं मया ते कथितं मनोहरं
वैदेह वृंदावनखंडमग्रतः ।
श्रृणोति चैतच्चरितं नरो वरः
परंपदं पुण्यतमं प्रयाति सः ॥ ४६ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं-
राजन् ! यह सुनकर भगवान् विरजा के निकुञ्ज में
चले गये । तब श्रीकृष्ण के मित्र श्रीदामा ने
राधा से रोषपूर्वक कहा ।। ३१ ।।
श्रीदामा बोला - राधे
! श्रीकृष्ण साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् हैं। वे स्वयं असंख्य ब्रह्माण्डोंके अधिपति
और गोलोकके स्वामीके रूपमें विराजमान हैं। परात्पर श्रीकृष्ण तुम- जैसी करोड़ों शक्तियोंको
बना सकते हैं। उनकी तुम निन्दा करती हो ? ऐसा मान न करो, न करो ।। ३२-३३ ॥
राधा बोली - ओ मूर्ख
! तू बापकी स्तुति करके मुझ माताकी निन्दा करता है ! अतः दुर्बुद्धे ! राक्षस हो जा
और गोलोकसे बाहर चला जा || ३४ ॥
श्रीदामा बोला - शुभे
! श्रीकृष्ण सदा तुम्हारे अनुकूल रहते हैं, इसीलिये तुम्हें इतना मान हो गया है। अतः
परिपूर्णतम परमात्मा श्रीकृष्णसे भूतलपर तुम्हारा सौ वर्षोंके लिये वियोग हो संशय नहीं
है । ३५-३६ ।।
श्रीनारदजी कहते हैं-
राजन् ! इस प्रकार परस्पर शाप देकर अपनी ही करनी से भयभीत हो,
जब राधा और श्रीदामा अत्यन्त चिन्तामें डूब गये, तब स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण वहाँ प्रकट
हुए ।। ३७ ।।
श्रीभगवान् ने कहा- राधे ! मैं अपने निगम- स्वरूप वचन को
तो छोड़ सकता हूँ, किंतु भक्तों की बात अन्यथा करनेमें सर्वथा
असमर्थ हूँ। कल्याणि राधिके ! शोक मत करो,
मेरी बात सुनो। वियोग- कालमें भी प्रतिमास एक बार तुम्हें मेरा दर्शन हुआ करेगा। वाराहकल्पमें
भूतलका भार उतारने और भक्तजनोंको दर्शन देनेके लिये मैं तुम्हारे साथ पृथ्वीपर चलूँगा
। श्रीदामन् ! तुम भी मेरी बात सुनो। तुम अपने एक अंशसे असुर हो जाओ। वैवस्वत मन्वन्तर-
में रासमण्डलमें आकर जब तुम मेरी अवहेलना करोगे, तब मेरे हाथसे तुम्हारा वध होगा, इसमें
संशय नहीं है। तत्पश्चात् फिर मेरे वरदानसे तुम अपना पूर्व शरीर प्राप्त कर लोगे ॥
३८–४२ ।।
श्रीनारदजी कहते हैं-
राजन् ! इस प्रकार शापवश महातपस्वी श्रीदामाने पूर्वकालमें यक्षलोकमें सुधनके घर जन्म
लिया। वह शङ्खचूड नामसे विख्यात हो यक्षराज कुबेरका सेवक हो गया। यही कारण है कि शङ्खचूडकी
ज्योति श्रीदामामें लीन हुई ।। ४३-४४ ।।
भगवान् श्रीकृष्ण स्वात्माराम
हैं, एकमात्र अद्वितीय परमात्मा हैं। वे अपने ही धाममें लीलापूर्वक सारा कार्य करते
हैं। जो सर्वेश्वर, सर्वरूप एवं महान् आत्मा हैं, उनके लिये यह सब कार्य अद्भुत नहीं
है; मैं उन श्रीकृष्णचन्द्रको नमस्कार करता हूँ ।। ४५ ।।
विदेहराज ! यह मनोहर
वृन्दावनखण्ड मैंने तुम्हारे सामने कहा है। जो नरश्रेष्ठ इस चरित्रका श्रवण करता है,
वह पुण्यतम परमपदको प्राप्त होता है ॥ ४६ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहिता में वृन्दावनखण्ड के अन्तर्गत नारद-बहुलाश्व-संवाद में 'शङ्खचूडोपाख्यान' नामक छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २६ ॥
॥ श्रीवृन्दावनखण्ड सम्पूर्ण
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शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
🌺🌹🥀🌺जय श्री:हरि🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव
जय हो लीला पुरुषोत्तम श्री कृष्ण
जय श्री राधे गोविंद