॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)
सृष्टि-वर्णन
यदैतेऽसङ्गता भावा भूतेन्द्रियमनोगुणाः ।
यदाऽऽयतननिर्माणे न शेकुर्ब्रह्मवित्तम ॥ ३२ ॥
तदा संहत्य चान्योन्यं भगवच्छक्तिचोदिताः ।
सदसत्त्वमुपादाय चोभयं ससृजुर्ह्यदः ॥ ३३ ॥
वर्षपूगसहस्रान्ते तदण्डमुदके शयम् ।
कालकर्मस्वभावस्थो जीवोऽजीवमजीवयत् ॥ ३४ ॥
स एव पुरुषः तस्माद् अण्डं निर्भिद्य निर्गतः ।
सहस्रोर्वङ्घ्रिबाह्वक्षः सहस्राननशीर्षवान् ॥ ३५ ॥
यस्येहावयवैर्लोकान् काल्पयन्ति मनीषिणः ।
कट्यादिभिरधः सप्त सप्तोर्ध्वं जघनादिभिः ॥ ३६ ॥
(ब्रह्माजी नारद जी से कहते हैं) श्रेष्ठ ब्रह्मवित् ! जिस समय ये पञ्चभूत, इन्द्रिय, मन और सत्त्व आदि तीनों गुण परस्पर संगठित नहीं थे, तब अपने रहनेके लिये भोगोंके साधनरूप शरीरकी रचना नहीं कर सके ॥ ३२ ॥ जब भगवान्ने इन्हें अपनी शक्तिसे प्रेरित किया, तब वे तत्त्व परस्पर एक दूसरेके साथ मिल गये और उन्होंने आपसमें कार्य-कारणभाव स्वीकार करके व्यष्टि-समष्टिरूप पिण्ड और ब्रह्माण्ड दोनोंकी रचना की ॥ ३३ ॥ वह ब्रह्माण्डरूप अंडा एक सहस्र वर्षतक निर्जीवरूपसे जलमें पड़ा रहा; फिर काल, कर्म और स्वभावको स्वीकार करनेवाले भगवान्ने उसे जीवित कर दिया ॥ ३४ ॥ उस अंडेको फोडक़र उसमेंसे वही विराट् पुरुष निकला, जिसकी जङ्घा, चरण, भुजाएँ, नेत्र, मुख और सिर सहस्रोंकी संख्यामें हैं ॥ ३५ ॥ विद्वान् पुरुष (उपासनाके लिये) उसी(विराट् पुरुष)के अङ्गोंमें समस्त लोक और उनमें रहनेवाली वस्तुओं की कल्पना करते हैं। उसकी कमर से नीचे के अङ्गों में सातों पाताल की और उसके पेड़ू से ऊपर के अङ्गों में सातों स्वर्ग की कल्पना की जाती है ॥ ३६ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
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