#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
बीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
श्रीराधा
और श्रीकृष्ण के परस्पर शृङ्गार-धारण, रास, जलविहार एवं वनविहार का वर्णन
शिरोमणिं
सुंदरी च रत्नवेणीं प्रहर्षिणी ।
भूषणे चन्द्रसूर्याख्ये विद्युत्कोटिसमप्रभे ॥ १३ ॥
राधिकायै ददौ देवी वृन्दा वृन्दावनेश्वरी ।
एवं शृङ्गारसंस्फूर्जद्रूपया राधया हरिः ॥ १४ ॥
गिरिराजे बभौ राजन् यज्ञो दक्षिणया यथा ।
यत्र वै राधया रासे शृङ्गारोऽकारि मैथिल ॥ १५ ॥
तत्र गोवर्धने जातं स्थलं शृङ्गारमंडलम् ।
अथ कृष्णः स्वप्रियाभिर्ययौ चन्द्रसरोवरम् ॥ १६ ॥
चकार तज्जले क्रीडां गजीभिर्गजराडिव ।
तत्र चंद्रः समागत्य चंद्रकान्तौ मणी शुभौ ॥ १७ ॥
सहस्रदलपद्मे द्वे स्वामिन्यै हरये ददौ ।
अथ कृष्णो हरिः साक्षात् पश्यन् वृंदावनश्रियम् ॥ १८ ॥
प्रययौ बाहुलवनं लताजालसमन्वितम् ।
तत्र स्वेदसमायुक्तं वीक्ष्य सर्वं सखीजनम् ॥ १९ ॥
रागं तु मेघमल्लारं जगौ वंशीधरः स्वयम् ।
सद्यस्तत्रैव ववृषुर्मेधा अंबुकणांस्तथा ॥ २० ॥
तदैव शीतलो वायुर्ववौ गंधमनोहरः ।
तेन गोपीगणाः सर्वे सुखं प्राप्ता विदेहराट् ॥ २१ ॥
जगुर्यशः श्रीमुरारेरुच्चैस्तत्र समन्विताः ।
तस्मात्तालवनं प्रागाच्छ्रीकृष्णो राधिकापतिः ॥ २२ ॥
रासमंडलमारेभे गायन् व्रजवधूवृतः ।
तत्र गोपीगणाः सर्वे स्वेदयुक्तास्तृषातुराः ॥ २३ ॥
गोप्य ऊचुः -
ऊचू रासेश्वरं रासे कृतांजलिपुटाः शनैः ।
दूरं वै यमुना देव तृषा जाता परं हि नः ॥ २४ ॥
कर्तव्यं भवताऽत्रैव रासे दिव्यं मनोहरम् ।
वारां विहारं पानं च करिष्यामो हरे वयम् ॥ २५ ॥
सुन्दरीने चूडामणि तथा
प्रहर्षिणीने रत्नमयी वेणी प्रदान की । वृन्दावनाधीश्वरी वृन्दादेवीने श्रीराधाको करोड़ों
बिजलियोंके समान विद्योतमान चन्द्र-सूर्य नामक दो आभूषण भेंट किये। इस प्रकार शृङ्गार
धारण करके श्रीराधाका रूप दिव्य ज्योतिसे उद्भासित हो
उठा ॥ १३- १४ ॥
राजन् ! उनके साथ गिरिराजपर
श्रीहरि दक्षिणाके साथ यज्ञनारायणकी भाँति सुशोभित हुए । मिथिलेश्वर ! जहाँ रासमें
श्रीराधाने शृङ्गार धारण किया, गोवर्धन पर्वतपर वह स्थान 'शृङ्गार-मण्डल' के नामसे
विख्यात हो गया । तदनन्तर श्रीकृष्ण अपनी प्रिया गोपसुन्दरियों के
साथ चन्द्रसरोवर पर गये । उसके जलमें उन्होंने हथिनियोंके साथ
गजराजकी भाँति विहार किया। वहाँ साक्षात् चन्द्रमाने आकर स्वामिनी श्रीराधा और श्यामसुन्दर
श्रीहरिको दो सुन्दर चन्द्रकान्तमणियाँ तथा दो सहस्रदल कमल भेंट किये। तत्पश्चात् साक्षात्
श्रीहरि कृष्ण वृन्दावनकी शोभा निहारते हुए लता - वल्लरियोंसे व्याप्त बहुलावनमें गये।
वहाँ सम्पूर्ण सखीजनोंको पसीनेसे भींगा देख वंशीधरने 'मेघमल्लार' नामक राग गाया। फिर
तो वहाँ उसी समय बादल घिर आये और जलकी फुहारें बरसाने लगे ।। १५ - २० ॥
विदेहराज ! उसी समय अपनी
सुगन्धसे सबका मन मोह लेनेवाली शीतल वायु चलने लगी। उससे समस्त गोपाङ्गनाओंको बड़ा
सुख मिला। वे वहाँ एकत्र सम्मिलित हो उच्चस्वरसे श्रीमुरारि का यश गाने लगीं । वहाँसे
राधावल्लभ श्रीकृष्ण तालवनको गये। उस वनमें व्रजवधूटियों से घिरे हुए श्रीहरिने मण्डलाकार
रासनृत्य आरम्भ किया। उस नृत्यमें समस्त गोप- सुन्दरियाँ पसीना-पसीना हो गयीं और प्याससे
व्याकुल हो उठीं। उन सबने हाथ जोड़कर रासमण्डलमें रासेश्वरसे कहा ।। २१–२३ ॥
गोपियाँ बोलीं- देव
! यमुनाजी तो यहाँसे बहुत दूर हैं और हमलोगोंको बड़े जोरसे प्यास
लगने लगी है। हरे ! हम यह भी चाहती हैं कि आप यहीं दिव्य मनोहर रास करें। हम आपके साथ
यहीं जलविहार और जलपान करेंगी। आप इस जगत्के सृष्टि, पालन तथा संहार
के भी नायक हैं ।। २४-२५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
🌹🍂💐🥀जय श्री हरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
जय हो गोपीजन वल्लभ
राधा रास बिहारी गोविंद
जय श्री राधे कृष्ण