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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
छठा अध्याय (पोस्ट 01)
गोपों का वृषभानुवर के वैभव की प्रशंसा करके
नन्दनन्दन की भगवत्ता का परीक्षण करनेके लिये उन्हें प्रेरित करना
और वृषभानुवर का कन्या के विवाहके लिये
वरको देने के निमित्त बहुमूल्य एवं बहुसंख्यक मौक्तिक-हार भेजना
तथा श्रीकृष्णकी कृपासे नन्दराजका वधू के लिये उनसे भी अधिक मौक्तिकराशि
भेजना
श्रीनारद उवाच -
वृषभानुवरस्येदं वचःश्रुत्वा व्रजौकसः।
ऊचुः पुनः शान्तिगता विस्मिता मुक्तसंशयाः ॥१॥
गोपा ऊचुः -
समीचीनं वरो राजन् राधेयं तु हरिप्रिया ।
तत्प्रभावेण ते दीर्घं वैभवं दृश्यते भुवि ॥२॥
सहस्रशो गजा मत्ताः कोटिशोऽश्वाश्च चंचलाः ।
रथाश्च देवधिष्ण्याभाः शिबिकाः कोटिशः शुभाः ॥३॥
कोटिशः कोटिशो गावो हेमरत्नमनोहराः ।
मन्दिराणी विचित्राणि रत्नानि विविधानि च ॥४॥
सर्वं सौख्यं भोजनादि दृश्यते साम्प्रतं तव ।
कंसोऽपि धर्षितो जातो दृष्ट्वा ते बलमद्भुतम् ॥५॥
कान्यकुब्जपतेः साक्षाद्भलन्दननृपस्य च ।
जामाता त्वं महावीर कुबेर इव कोशवान् ॥६॥
त्वत्समं वैभवं नास्ति नन्दराजगृहे क्वचित् ।
कृषीवलो नन्दराजो गोपतिर्दीनमानसः ॥७॥
यदि नन्दसुतः साक्षात्परिपूर्णतमो हरिः ।
सर्वेषां पश्यतां नस्तत्परिक्षां कारय प्रभो ॥८॥
श्रीनारद उवाच -
तेषां वाक्यं ततः श्रुत्वा वृषभानुवरो महान् ।
चकार नन्दराजस्य वैभवस्य परीक्षणम् ॥९॥
कोटिदामानि मुक्तानां स्थूलानां मैथिलेश्वर ।
एकैका येषु मुक्ताश्च कोटिमौल्याः स्फुरत्प्रभाः ॥१०॥
निधाय तानि पात्रेषु वृणानैः कुशलैर्जनैः ।
प्रेषयामास नन्दाय सर्वेषां पश्यतां नृप ॥११॥
नन्दराजसभां गत्वा वृणानाः कुशला भृशम् ।
निधाय दामपात्राणि नन्दमाहुः प्रणम्य तम् ॥१२॥
श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! वृषभानुवरकी यह बात सुनकर
समस्त व्रजवासी शान्त हो गये। उनका सारा संशय दूर हो गया तथा उनके मनमें बड़ा विस्मय
हुआ ।। १ ।।
गोप बोले- राजन् ! तुम्हारा कथन सत्य है । निश्चय ही
यह राधा श्रीहरिकी प्रिया है। इसीके प्रभाव- से भूतलपर तुम्हारा वैभव अधिक दिखायी देता
है। वैभव अधिक दिखायी देता है। हजारों मतवाले हाथी, चञ्चल घोड़े तथा देवताओंके विमान-
सदृश करोड़ों सुन्दर रथ और शिबिकाएँ तुम्हारे यहाँ सुशोभित होती हैं। इतना ही नहीं,
सुवर्ण तथा रत्नोंके आभूषणोंसे विभूषित कोटि-कोटि मनोहर गौएँ, विचित्र भवन, नाना प्रकारके
मणिरत्न, भोजन-पान आदिका सर्वविध सौख्य- यह सब इस समय तुम्हारे घरमें प्रत्यक्ष देखा
जाता है। तुम्हारा अद्भुत बल देखकर कंस भी पराभूत हो गया है ।। २-५ ।।
महावीर ! तुम कान्यकुब्ज देशके स्वामी साक्षात् राजा
भलन्दनके जामाता हो तथा कुबेरके समान कोषाधिपति । तुम्हारे समान वैभव नन्दराजके घर
में कहीं नहीं है। नन्दराज तो किसान, गोयूथके अधिपति और दीन हृदयवाले हैं। प्रभो !
यदि नन्दके पुत्र साक्षात् परिपूर्णतम श्रीहरि हैं तो हम सबके सामने नन्द के वैभव की परीक्षा कराइये ॥ ६-८
॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! उन गोपोंकी बात सुनकर
महान् वृषभानुवरने नन्दराजके वैभवकी परीक्षा की। मैथिलेश्वर ! उन्होंने स्थूल मोतियोंके
एक करोड़ हार लिये, जिनमें पिरोया हुआ एक-एक मोती एक-एक करोड़ स्वर्णमुद्राके मोलपर
मिलनेवाला था और उन सबकी प्रभा दूरतक फैल रही थी। नरेश्वर ! उन सबको पात्रोंमें रखकर
बड़े कुशल वर-वरणकारी लोगोंद्वारा सब गोपोंके देखते-देखते वृषभानुवरने नन्दराजजीके
यहाँ भेजा । नन्दराजकी सभामें जाकर अत्यन्त कुशल वर-वरणकर्ता लोगोंने मौक्तिक-हारोंके
पात्र उनके सामने रख दिये और प्रणाम करके उनसे कहा-- ।। ९ – १२
॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
परिपूर्णतम ब्रह्म भगवान श्री कृष्ण गोविंद का हर क्षण सहस्त्रों सहस्त्रों कोटिश:चरण वंदन
जवाब देंहटाएंश्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव: !!
नारायण नारायण हरि: !! हरि: !!