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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
नवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
गिरिराज गोवर्धन की उत्पत्ति का वर्णन
श्रीबहुलाश्व उवाच -
अहो गोवर्धनः साक्षाद्गिरिराजो हरिप्रियः ।
तत्समानं न तीर्थं हि विद्यते भूतले दिवी ॥१॥
कदा बभूव श्रीकृष्णवक्षसोऽयं गिरीश्वरः ।
एतद्वद महाबुद्धे त्वं साक्षाद्धरिमानसः ॥२॥
श्रीनारद उवाच -
गोलोकोत्पत्तिवृत्तान्तं शृणु राजन् महामते ।
चतुष्पदार्थदं नॄणामाद्यलीलासमन्वितम् ॥३॥
अनादिरात्मा पुरुषो निर्गुणः प्रकृतेः परः ।
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान्प्रभुः ॥४॥
प्रत्यग्धामा स्वयंज्योती रममाणो निरन्तरम् ।
यत्र कालः कलयतामीश्वरो धाममानिनाम् ॥५॥
राजन्न प्रभवेन्माया न महांश्च गुणः कुतः ।
न विशन्ति क्वचिद्राजन् मनश्चितो मतिर्ह्यहम् ॥६॥
स्वधाम्नि ब्रह्म साकारमिच्छया व्यरचीकरत् ।
प्रथमं चाभवच्छेषो बिसश्वेतो बृहद्वपुः ॥७॥
तदुत्संगे महालोको गोलोको लोकवन्दितः ।
यं प्राप्य भक्तिसंयुक्तः पुनरावर्तते न हि ॥८॥
असंख्यब्रह्माण्डपतेर्गोलोकाधिपतेः प्रभोः ।
पुनः पादाब्जसंभूता गंगा त्रिपथगामिनी ॥९॥
पुनर्वामांसतस्तस्य कृष्णाऽभूत्सरितां वरा ।
रेजे शृङ्गारकुसुमैर्यथोष्णिङ्मुद्रिता नृप ॥१०॥
श्रीरासमण्डलं दिव्यं हेमरत्नसमन्वितम् ।
नानाशृङ्गारपटलं गुल्फाभ्यां श्रीहरेः प्रभोः ॥११॥
सभाप्रांगणवीथीभिर्मण्डपैः परिवेष्टितः ।
वसन्तमाधुर्यधरः कूजत्कोकिलसंकुलः ॥१२॥
मयूरैः षट्पदैर्व्याप्तः सरोभिः परिसेवितः ।
जातो निकुंजो जंघाभ्यां श्रीकृष्णस्य महात्मनः ॥१३॥
वृदावनं च जानुभ्यां राजन् सर्ववनोत्तमम् ।
लीलासरोवरः साक्षादूरुभ्यां परमात्मनः ॥१४॥
बहुलाश्व बोले- देवर्षे ! महान् आर्श्वयकी बात है,
गोवर्धन साक्षात् पर्वतोंका राजा एवं श्रीहरि को बहुत ही प्रिय
है। उसके समान दूसरा तीर्थ न तो इस भूतलपर है और न स्वर्गमें ही । महामते ! आप साक्षात् श्रीहरिके हृदय हैं | अतः अब यह बताइये कि यह गिरिराज
श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल से कब प्रकट हुआ
।। १-२ ॥
श्रीनारदजीने कहा- राजन ! महामते ! गोलोक के प्राकट्यका वृत्तान्त सुनो – यह श्रीहरिकी आदिलीलासे सम्बद्ध है
और मनुष्योंको धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष - चारों पुरुषार्थ प्रदान करनेवाला है। प्रकृतिसे
परे विद्यमान साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण सर्वसमर्थ, निर्गुण पुरुष एवं अनादि
आत्मा हैं। उनका तेज अन्तर्मुखी है। वे स्वयंप्रकाश प्रभु निरन्तर रमणशील हैं, जिनपर
धामाभिमानी गणनाशील देवताओंका ईश्वर 'काल' भी शासन करनेमें समर्थ नहीं है ।। ३-५ ।।
राजन् ! माया भी जिनपर अपना प्रभाव नहीं डाल सकती,
उनपर महत्तत्त्व और सत्त्वादि गुणोंका वश तो चल ही कैसे सकता है। राजन् ! उनमें कभी
मन, चित्त, बुद्धि और अहंकारका भी प्रवेश नहीं होता। उन्होंने अपने संकल्प से अपने ही स्वरूप में साकार ब्रह्म को व्यक्त किया ॥ सबसे पहले विशालकाय शेषनागका प्रादुर्भाव हुआ, जो
कमलनाल के समान श्वेतवर्ण के हैं। उन्हींकी
गोदमें लोकवन्दित महालोक गोलोक प्रकट हुआ, जिसे पाकर भक्तियुक्त पुरुष फिर इस संसार में नहीं लौटता है ।। ६-८ ।।
फिर असंख्य ब्रह्माण्डोंके अधिपति गोलोकनाथ भगवान्
श्रीकृष्णके चरणारविन्दसे त्रिपथगा गङ्गा प्रकट हुईं। नरेश्वर ! तत्पश्चात् श्रीकृष्णके
बायें कंधेसे सरिताओंमें श्रेष्ठ यमुनाजीका प्रादुर्भाव हुआ, जो शृङ्गार-कुसुमोंसे
उसी प्रकार सुशोभित हुई, जैसे छपी हुई पगड़ीके वस्त्रकी शोभा होती है । तदनन्तर भगवान्
श्रीहरिके दोनों गुल्फों (टखनों या घुट्टियों) से हेमरत्नोंसे युक्त दिव्य रासमण्डल
और नाना प्रकारके शृङ्गार-साधनोंके समूहका प्रादुर्भाव हुआ ।। ९-११ ।।
इसके बाद महात्मा श्रीकृष्णकी दोनों पिंडलियोंसे निकुञ्ज
प्रकट हुआ, जो सभाभवनों, आँगनों, गलियों और मण्डपोंसे घिरा हुआ था। वह निकुञ्ज वसन्तकी
माधुरी धारण किये हुए था। उसमें कूजते हुए कोकिलों की काकली सर्वत्र
व्याप्त थी । मोर, भ्रमर तथा विविध सरोवरों से भी वह परिशोभित
एवं परिसेवित दिखायी देता था । राजन् ! भगवान् के दोनों घुटनों से सम्पूर्ण वनों में उत्तम श्रीवृन्दावन का आविर्भाव हुआ। साथ ही उन साक्षात् परमात्मा की
दोनों जाँघों से लीला-सरोवर प्रकट हुआ। ।। १२-१४ ।।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
जवाब देंहटाएंहे नाथ नारायण वासुदेव
🌺🌿💐जय श्री कृष्ण 🙏🙏
ॐ श्री परमात्मने नमः
नारायण नारायण नारायण नारायण