मंगलवार, 24 सितंबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) पहला अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

पहला अध्याय (पोस्ट 01)

 

श्रुतिरूपा गोपियों का वृत्तान्त, उनका श्रीकृष्ण और दुर्वासामुनि की बातों में संशय तथा श्रीकृष्ण द्वारा उसका निराकरण

 

अतसीकुसुमोपमेयकांति-
     र्यमुनाकूलकदंबमध्यवर्ती ।
 नवगोपवधूविलासशाली
     वनमाली विरनोतु मंगलानि ॥ १ ॥
 परिकरीकृतपीतपटं हरिं
     शिखिकिरीटनतीकृतकंधरम् ।
 लकुटवेणुकरं चलकुण्डलं
     पटुतरं नटवेषधरं भजे ॥ २ ॥


 बहुलाश्व उवाच -
श्रुतिरूपादयो गोप्यो भूतपूर्वा वरान्मुने ।
 कथं श्रीकृष्णचन्द्रेण जाताः पूर्णमनोरथाः ॥ ३ ॥
 गोपालकृष्णचरितं पवित्रं परमाद्‌भुतम् ।
 एतद्‌वद महाबुद्धे त्वं परावरवित्तमः ॥ ४ ॥


 श्रीनारद उवाच -
श्रुतिरूपाश्च या गोप्यो गोपानां सुकुले व्रजे ।
 लेभिरे जन्म वैदेह शेषशायीवराच्छ्रुतात् ॥ ५ ॥
 कमनीयं नन्दसूनुं वीक्ष्य वृन्दावने च ताः ।
 वृन्दावनेश्वरीं वृन्दां भेजिरे तद्‌वरेच्छया ॥ ६ ॥
 वृन्दादत्ताद्‌वरादाशु प्रसन्नो भगवान् हरिः ।
 नित्यं तासां गृहे याति रासार्थं भक्तवत्सलः ॥ ७ ॥
 एकदा तु निशीथिन्या व्यतीते प्रहरद्वये ।
 रासार्थं भगवान् कृष्णः प्राप्तवान् तद्‌गृहान्नृप ॥ ८ ॥
 तदा उत्कंठिता गोप्यः कृत्वा तत्पूजनं परम् ।
 पप्रच्छुः परया भक्त्या गिरा मधुरया प्रभुम् ॥ ९ ॥


 गोप्य ऊचुः -
कथं न चागतः शीघ्रं नो गृहान् वृजिनार्दन ।
 उत्कंठितानां गोपीनां त्वयि चन्द्रे चकोरवत् ॥ १० ॥


 श्रीभगवानुवाच -
यो यस्य चित्ते वसति न स दूरे कदाचन ।
 खे सूर्यं कमलं भूमौ दृष्ट्वेदं स्फुटति प्रियाः ॥ ११ ॥
 भाण्डीरे मे गुरुः साक्षात् दुर्वासा भगवान् मुनिः ।
 आगतोऽद्य प्रियास्तस्य सेवार्थं गतवानहम् ॥ १२ ॥
 गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः ।
 गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ १३ ॥
 अज्ञानतिमिरांधस्य ज्ञानांजनशलाकया ।
 चक्षुरुमीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ १४ ॥
 स्वगुरुं मां विजानीयान्नावमन्येत कर्हिचित् ।
 न मर्त्यबुद्ध्या सेवेत सर्वदेवमयो गुरुः ॥ १५ ॥
 तस्मात्तत्पूजनं कृत्वा नत्वा तत्पादपंकजम् ।
 आगतोऽहं विलंबेन भवतीनां गृहान् प्रियाः ॥ १६ ॥

'जिनकी अङ्गकान्तिको अलसीके फूलकी उपमा दी जाती है, जो यमुनाकूलवर्ती कदम्बवृक्षके मूलभागमें विद्यमान हैं तथा नूतन गोपाङ्गनाओंके साथ लीला - विलास करते हुए अत्यन्त शोभा पा रहे हैं, वे वनमाली श्रीकृष्ण मङ्गलका विस्तार करें ॥ १ ॥ 'जिन्होंने पीताम्बरकी फेंट बाँध रखी है, जिनके मस्तकपर मोरपंखका मुकुट सुशोभित है और गर्दन एक ओर झुकी हुई है, जो लकुटी और वंशी हाथ में लिये हुए हैं और जिनके कानोंमें चञ्चल कुण्डल झिलमला रहे हैं, उन परम पटु, नटवेषधारी श्रीकृष्ण का मैं भजन (ध्यान) करता हूँ' ॥ २ ॥

बहुलाश्वने पूछा- मुने ! श्रुतिरूपा आदि गोपियोंने, जो पूर्वप्रदत्तवरके अनुसार पहले ही व्रजमें प्रकट हो चुकी थीं, किस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रका साहचर्य पाकर अपना मनोरथ पूर्ण किया था ? महाबुद्धे ! गोपाल श्रीकृष्णचन्द्रका चरित्र परम अद्भुत है, इसे कहिये, क्योंकि आप परापरवेत्ताओंमें सबसे श्रेष्ठ हैं ।। ३-४ ।।

श्रीनारदजीने कहा- विदेहराज ! श्रुतिरूपा जो गोपियाँ थीं, वे शेषशायी भगवान् विष्णुके पूर्वकथित वरसे व्रजवासी गोपोंके उत्तम कुलमें उत्पन्न हुईं। उन सबने वृन्दावनमें परम कमनीय नन्दनन्दन का दर्शन करके उन्हें वररूप में पाने की इच्छासे वृन्दावनेश्वरी वृन्दादेवी की समाराधना की। वृन्दा के दिये हुए वर से भक्तवत्सल भगवान् श्रीहरि उनके ऊपर शीघ्र प्रसन्न हो गये और प्रतिदिन उनके घरों में रासक्रीड़ा के लिये जाने लगे ॥५-

नरेश्वर ! एक दिन रात में दो पहर बीत जानेपर भगवान् श्रीकृष्ण रासके लिये उनके घर गये। उस समय उत्कण्ठित गोपियोंने उन परम प्रभुका अत्यन्त भक्ति- भावसे पूजन करके मधुर वाणीमें पूछा ॥ - ९॥

गोपियाँ बोलीं- अघनाशन श्रीकृष्ण ! जैसे चकोरी चन्द्रदर्शनके लिये उत्सुक रहती है, उसी प्रकार हम गोपाङ्गनाएँ आपसे मिलनेको उत्कण्ठित रहती हैं। अतः आप हमारे घर में शीघ्र क्यों नहीं आये ? ॥ १० ॥

श्रीभगवान् ने कहा – प्रियाओ ! जो जिसके हृदयमें वास करता है, वह उससे दूर कभी नहीं रहता । देखो न, सूर्य तो आकाशमें है और कमल भूमिपर; फिर भी वह उन्हें देखते ही खिल उठता है (वह सूर्य- को अपने अत्यन्त निकटस्थ अनुभव करता है) । प्रियाओ ! आज मेरे साक्षात् गुरु भगवान् दुर्वासामुनि भाण्डीर-वनमें पधारे हैं। उन्हींकी सेवाके लिये मैं चला गया था ॥११-१२

गुरु ब्रह्मा हैं, गुरु विष्णु हैं, गुरु भगवान् महेश्वर हैं और गुरु साक्षात् परम ब्रह्म हैं। उन श्रीगुरु को मेरा नमस्कार है। अज्ञानरूपी रतौंधी से अंधे हुए मनुष्य की दृष्टि को जिन्होंने ज्ञानाञ्जन की शलाका से खोल दिया है, उन श्रीगुरुदेव को नमस्कार है। अपने गुरु को मेरा स्वरूप ही समझना चाहिये और कभी उनकी अवहेलना नहीं करनी चाहिये। गुरु सम्पूर्ण देवताओंके स्वरूप होते हैं। अतः साधारण मनुष्य समझकर उनकी सेवा नहीं करनी चाहिये। हे प्रियाओं ! मैं उनका पूजन करके तथा उनके चरणकमलोंमें प्रणाम करके तुम्हारे घर देरी से पहुँचा हूँ ॥ १– १६ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



1 टिप्पणी:

  1. 💐💖💐ॐ श्रीपरमात्मने नमः
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    जय गोपीजन वल्लभ
    जय राधा रमण रास बिहारी
    श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
    हे नाथ नारायण वासुदेव
    🙏🥀🙏🥀🙏

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