॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
पुरुषोऽण्डं विनिर्भिद्य यदाऽसौ स विनिर्गतः ।
आत्मनोऽयनमन्विच्छन् अपः अस्राक्षीच्छुचिः शुचीः ॥ १० ॥
तास्ववात्सीत् स्वसृष्टासु सहस्रं परिवत्सरान् ।
तेन नारायणो नाम यदापः पुरुषोद्भंवाः ॥ ११ ॥
द्रव्यं कर्म च कालश्च स्वभावो जीव एव च ।
यदनुग्रहतः सन्ति न सन्ति यद् उपेक्षया ॥ १२ ॥
एको नानात्वमन्विच्छन् योगतल्पात् समुत्थितः ।
वीर्यं हिरण्मयं देवो मायया व्यसृजत् त्रिधा ॥ १३ ॥
अधिदैवं अथ अध्यात्मं अधिभूतमिति प्रभुः ।
अथैकं पौरुषं वीर्यं त्रिधा भिद्यत तच्छृणु ॥ १४ ॥
जब पूर्वोक्त विराट् पुरुष ब्रह्माण्ड को फोडक़र निकला, तब वह अपने रहनेका स्थान ढूँढने लगा और स्थानकी इच्छासे उस शुद्ध-सङ्कल्प पुरुषने अत्यन्त पवित्र जलकी सृष्टि की ॥ १० ॥
विराट् पुरुषरूप ‘नर’ से उत्पन्न होनेके कारण ही जलका नाम ‘नार’ पड़ा। और उस अपने उत्पन्न किये हुए ‘नार’में वह पुरुष एक हजार वर्षोंतक रहा, इसीसे उसका नाम ‘नारायण’ हुआ ॥ ११ ॥ उन नारायणभगवान्की कृपासे ही द्रव्य, कर्म, काल, स्वभाव और जीव आदिकी सत्ता है। उनके उपेक्षा कर देनेपर और किसीका अस्तित्व नहीं रहता ॥ १२ ॥ उन अद्वितीय भगवान् नारायणने योगनिद्रासे जगकर अनेक होनेकी इच्छा की। तब अपनी मायासे उन्होंने अखिल ब्रह्माण्डके बीजस्वरूप अपने सुवर्णमय वीर्यको तीन भागोंमें विभक्त कर दिया—अधिदैव, अध्यात्म और अधिभूत। परीक्षित् ! विराट् पुरुषका एक ही वीर्य तीन भागोंमें कैसे विभक्त हुआ, सो सुनो ॥ १३-१४ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
💐🌹🥀💐जय श्रीहरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण