रविवार, 22 सितंबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

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श्रीगर्ग-संहिता

(गिरिराज खण्ड)

ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

सिद्ध के द्वारा अपने पूर्वजन्म के वृत्तान्त का वर्णन तथा गोलोक से उतरे हुए विशाल रथपर आरूढ़ हो उसका श्रीकृष्ण-लोक में गमन

 

श्रीनारद उवाच -
इति श्रुत्वा सिद्धवाक्यं ब्राह्मणो विस्मयं गतः।
पुनः पप्रच्छ तं राजन् गिरिराजप्रभाववित् ॥१॥


ब्राह्मण उवाच -
पुरा जन्मनि कस्त्वं भोस्त्वया किं कलुषं कृतम् ।
सर्वं वद महाभाग त्वं साक्षाद्दिव्यदर्शनः ॥२॥


सिद्ध उवाच -
पुरा जन्मनि वैश्योऽहं धनी वैश्यसुतो महान् ।
आबाल्याद्द्युतनिरतो विटगोष्ठीविशारदः ॥३॥
वेश्यारतः कुमार्गोऽहं मदिरामदविह्वलः ।
मात्रा पित्रा भार्ययापि भर्त्सितोऽहं सदा द्विज ॥४॥
एकदा तु मया विप्र पितरौ गरदानतः ।
मारितौ च तथा भार्या खड्‍गेन पथि मारिता ॥५॥
गृहीत्वा तद्धनं सर्वं वेश्यया सहितः खलः ।
दक्षिणाशां च गतवान् दस्युकर्माऽतिनिर्दयः ॥६॥
एकदा तु मया वेश्या निःक्षिप्ता ह्यंधकूपके ।
दस्युना हि मया पाशैर्मारिताः शतशो नराः ॥७॥
धनलोभेन भो विप्र ब्रह्महत्याशतं कृतम् ।
क्षत्रहत्या वैश्यहत्याः शूद्रहत्याः सहस्रशः ॥८॥
एकदा मांसमानेतुं मृगान् हन्तुं वने गतम् ।
सर्पोऽदशत्पदा स्पृष्टो दुष्टं मां निधनं गतम् ॥९॥
संताड्य मुद्‌गरैर्घोरैर्यमदूता भयंकराः ।
बद्‌ध्वा मां नरकं निन्युर्महापातकिनं खलम् ॥१०॥
मन्वन्तरं तु पतितः कुम्भीपाके महाखले ।
कल्पैकं तप्तसूर्मौ च महादुःखं गतः खलः ॥११॥
चतुरशीतिलक्षाणां नरकाणां पृथक् पृथक् ।
वर्षं वर्षं निपतितो निर्गतोऽहं यमेच्छया ॥१२॥
ततस्तु भारते वर्षे प्राप्तोऽहं कर्मवासनाम् ।
दशवारं सूकरोऽहं व्याघ्रोऽहं शतजन्मसु ॥१३॥
उष्ट्रोऽहं जन्मशतकं महिषः शतजन्मसु ।
सर्पोऽहं जन्मसाहस्रं मारितो दुष्टमानवैः ॥१४॥
एवं वर्षायुतांते तु निर्जले विपिने द्विज ।
राक्षसश्चेदृशो जातो विकरालो महाखलः ॥१५॥
कस्य शूद्रस्य देहं वै समारुह्य व्रजं गतः ।
वृन्दावनस्य निकटे यमुना निकटाच्छुभात् ॥१६॥
समुत्थिता यष्टिहस्ताः श्यामलाः कृष्णपार्षदाः ।
तैस्ताडितो धर्षितोऽहं व्रजभूमौ पलायितः ॥१७॥
बुभिक्षितो बहुदिनैस्त्वां खादितुमिहागतः ।
तावत्त्वया ताडितोऽहं गिरिराजाश्मना मुने ॥१८॥
श्रीकृष्णकृपया साक्षात्कल्याणं मे बभूव ह ।

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! सिद्धकी यह बात सुनकर ब्राह्मणको बड़ा विस्मय हुआ । गिरिराजके प्रभावको जानकर उसने सिद्ध से पुनः प्रश्न किया ॥ १ ॥

ब्राह्मणने पूछा- महाभाग ! इस समय तो तुम साक्षात् दिव्यरूपधारी दिखायी देते हो। परंतु पूर्वजन्ममें तुम कौन थे और तुमने कौन-सा पाप किया था ? ॥ २ ॥

सिद्धने कहा – पूर्वजन्म में मैं एक धनी वैश्य था । अत्यन्त समृद्ध वैश्य -बालक होनेके कारण मुझे बचपन से ही जुआ खेलने की आदत पड़ गयी थी। धूर्तों और जुआरियोंकी गोष्ठी में मैं सब से चतुर समझा जाता था ॥

आगे चलकर मैं वेश्या में आसक्त हो गया, कुपथपर चलने और मदिरा के मदसे उन्मत्त रहने लगा । ब्रह्मन् ! इसके कारण मुझे अपने माता-पिता और पत्नीकी ओरसे बड़ी फटकार मिलने लगी। एक दिन मैंने माँ-बापको तो जहर देकर मार डाला और पत्नीको साथ लेकर कहीं जानेके बहाने निकला और रास्तेमें मैंने तलवारसे उसकी हत्या कर दी। इस तरह उन सबके धनको हथियाकर मैं उस वेश्याके साथ दक्षिण दिशामें चला गया। यह है मेरी दुष्टताका परिचय । दक्षिण जाकर मैं अत्यन्त निर्दयतापूर्वक लूट-पाटका काम करने लगा ॥ ४-६

एक दिन उस वेश्या को भी मैंने अँधेरे कुऍ में डाल दिया। डाकू तो मैं हो ही गया था, मैंने फाँसी लगाकर सैकड़ों मनुष्योंको मौतके घाट उतार दिया। विप्रवर ! धनके लोभसे मैंने सैकड़ों ब्रह्महत्याएँ कीं । क्षत्रिय- हत्या, वैश्य - हत्या और शूद्र हत्याकी संख्या तो हजारों तक पहुँच गयी होगी ॥ ७-८

एक दिनकी बात है कि मैं मांस लानेके निमित्त मृगोंका वध करनेके लिये वनमें गया । वहाँ एक सर्पके ऊपर मेरा पैर पड़ गया और उसने मुझे डॅस लिया। फिर तो तत्काल मेरी मृत्यु हो गयी और यमराजके भयंकर दूतोंने आकर मुझ दुष्ट और महापातकी को भयानक मुद्गरों से पीट-पीटकर बाँधा और नरक में पहुँचा दिया ॥ ९-१०

मुझे महादुष्ट मानकर 'कुम्भीपाक' में डाला गया और वहाँ एक मन्वन्तरतक रहना पड़ा। तत्पश्चात् 'तप्तसूर्मि' नामक नरकमें मुझ दुष्टको एक कल्पतक महान् दुःख भोगना पड़ा। इस तरह चौरासी लाख नरकोंमेंसे प्रत्येकमें अलग-अलग यमराजकी इच्छासे मैं एक-एक वर्षतक पड़ता और निकलता रहा ॥ ११-१२

तदनन्तर भारतवर्षमें कर्मवासना के अनुसार मेरा दस बार तो सूअरकी योनिमें जन्म हुआ और सौ बार व्याघ्रकी योनिमें। फिर सौ जन्मोंतक ऊँट और उतने ही जन्मोंतक भैंसा हुआ। इसके बाद एक सहस्र जन्मतक मुझे सर्पकी योनिमें रहना पड़ा। फिर कुछ दुष्ट मनुष्यों ने मिलकर मुझे मार डाला ॥१३-१४

विप्रवर! इस तरह दस हजार वर्ष बीतनेपर जलशून्य विपिन में मैं ऐसा विकराल और महाखल राक्षस हुआ, जैसा कि तुमने अभी-अभी देखा है ॥ १५

एक दिन किसी शूद्र के शरीरमें आविष्ट होकर व्रजमें गया । वहाँ वृन्दावन के निकटवर्ती यमुनाके सुन्दर तटसे हाथमें छड़ी लिये हुए कुछ श्यामवर्णवाले श्रीकृष्णके पार्षद उठे और मुझे पीटने लगे। उनके द्वारा तिरस्कृत होकर मैं व्रजभूमिसे इधर भाग आया; तबसे बहुत दिनोंतक मैं भूखा रहा और तुम्हें खा जानेके लिये यहाँ आया। इतनेमें ही तुमने मुझे गिरिराजके पत्थरसे मार दिया। मुने ! मुझपर साक्षात् श्रीकृष्णकी कृपा हो गयी, जिससे मेरा कल्याण हो गया ॥१६ -१८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



2 टिप्‍पणियां:

  1. जय हो गिरिराज धरण गोवर्धन गिरधारी महाराज 🙏💟🌹🙏
    श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
    हे नाथ नारायण वासुदेव
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    ॐ श्री परमात्मने नमः
    🌼🌿🌷🌾🌹🥀🙏🙏🙏

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