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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
छठा अध्याय (पोस्ट 02)
गोपों का वृषभानुवर के वैभव की प्रशंसा करके
नन्दनन्दन की भगवत्ता का परीक्षण करनेके लिये उन्हें प्रेरित करना
और वृषभानुवर का कन्या के विवाहके लिये
वरको देने के निमित्त बहुमूल्य एवं बहुसंख्यक मौक्तिक-हार भेजना
तथा श्रीकृष्णकी कृपासे नन्दराजका वधू के लिये उनसे भी अधिक मौक्तिकराशि
भेजना
वृणाना ऊचुः -
विवाहयोग्यां नवकंजनेत्रां
कोटीन्दुबिम्बद्युतिमादधानाम् ।
विज्ञाय राधां वृषभानुमुख्य-
श्चक्रे विचारं सुवरं विचिन्वन् ॥१३॥
तवांगजं दिव्यमनंगमोहनं
गोवर्द्धनोद्धारणदोःसामुद्भटम् ।
संवीक्ष्य चास्मान्वृषभानुवंदितः
संप्रेषयामास विशाम्पते प्रभो ॥१४॥
वरस्य चांके भरणाय पूर्वं
मुक्ताफलानां निचयं गृहाण ।
इतश्च कन्यार्थमलं प्रदेहि
सैषा हि चास्मत्कुलजा प्रसिद्धिः ॥१५॥
श्रीनारद उवाच -
दृष्ट्वा द्रव्यं परो नन्दो विस्मितोऽपि विचारयन् ।
प्रष्टुं यशोदां तत्तुल्यं नीत्वा चान्तःपुरं ययौ ॥१६॥
चिरं दध्यौ तदा नन्दो यशोदा च यशस्विनी ।
एतन्मुक्तासमानं तु द्रव्यं नास्ति गृहे मम ॥१७॥
लोके लज्जा गता सर्वा हासः स्याच्चेद्धनोद्धृतम् ।
किं कर्तव्यं तत्प्रति यच्छ्रीकृष्णोद्वाहकर्मणि ॥१८॥
ततोऽयोग्यं तद्ग्रहणं पश्चात्कार्यं धनागमे ।
एवं चिन्तयतस्तस्य नन्दस्यैव यशोदया ॥१९॥
अलक्ष्य आगतस्तत्र भगवान्वृजिनार्दनः ।
नीत्वा दामशतं तेषु बहिःक्षेत्रेषु सर्वतः ॥२०॥
मुक्ताफलानि चैकैकम्प्राक्षिपत्स्वकरेण वै ।
यथा बीजानि चान्नानां स्वक्षेत्रेषु कृषीवलः ॥२१॥
अथ नन्दोऽपि गणयन् कलिकानिचयं पुनः ।
शतं न्यूनं च तद्दृष्ट्वा सन्देहं स जगाम ह ॥२२॥
श्रीनन्द उवाच -
नास्ति पूर्वं यत्समानं तत्रापि न्यूनतां गतम् ।
अहो कलंको भविता ज्ञातिषु स्वेषु सर्वतः ॥२३॥
अथवा क्रीडनार्थ हि कृष्णो यदि गृहीतवान् ।
बलदेवोऽथवा बालस्तौ पृच्छे दीनमानसः ॥२४॥
वर-वरणकर्ता बोले- नन्दराज ! जिसके नेत्र नूतन विकसित
कमलके समान शोभा पाते हैं तथा जो मुखमें करोड़ों चन्द्रमण्डलोंकी-सी कान्ति धारण करती
है, उस अपनी पुत्री श्रीराधाको विवाहके योग्य जानकर वृषभानुवरने सुन्दर वरकी खोज करते
हुए यह विचार किया है कि तुम्हारे पुत्र मदनमोहन श्रीकृष्ण दिव्य वर हैं। गोवर्धन पर्वतको
उठाने में समर्थ, दिव्य भुजाओंसे सम्पन्न तथा उद्भट वीर हैं।
प्रभो ! वैश्य-प्रवर !! यह सब देख और सोच-विचारकर वृषभानुवन्दित वृषभानुवरने हम सबको
यहाँ भेजा हैं। आप बरकी गोद भरनेके लिये पहले कन्या- पक्षकी ओरसे यह मौक्तिकराशि ग्रहण
कीजिये । फिर इधरसे भी कन्याकी गोद भरनेके लिये पर्याप्त मौक्तिकराशि प्रदान कीजिये
। यही हमारे कुलकी प्रसिद्ध रीति है । १३ – १५ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! उस द्रव्य- राशिको देखकर
उत्कृष्ट नन्दराज बड़े विस्मित हुए; तो भी वे कुछ विचारकर यशोदाजीसे 'उसके तुल्य रत्न-
राशि है या नहीं' इस बातको पूछनेके लिये वह सब सामान लेकर अन्तःपुरमें गये। वहाँ उस
समय नन्द और यशस्विनी यशोदाने चिरकालतक विचार किया, किंतु (अन्ततोगत्वा) इसी निष्कर्षपर
पहुँचे कि 'इस मौक्तिकराशि के बराबर दूसरी कोई द्रव्यराशि मेरे
घर में नहीं है । आज लोगों में हमारी सारी लाज गयी । हम लोगोंकी
सब ओर हँसी उड़ायी जायगी। इस धनके बदले में हम दूसरा कौन-सा धन
दें ? क्या करें ? श्रीकृष्ण के इस विवाह के
निमित्त हमारे द्वारा क्या किया जाना चाहिये ? ।। १६ – १८ ॥
पहले तो जो कुछ वरके लिये आया है, उसे ग्रहण कर लेना
चाहिये। पीछे अपने पास धन आनेपर वधूके लिये उपहार भेजा जायगा।' ऐसा विचार करते हुए
नन्द और यशोदाजीके पास भगवान् अघमर्दन श्रीकृष्ण अलक्षितभावसे ही वहाँ आ गये। उन मौक्तिक-
हारोंमेंसे सौ हार उन्होंने घरसे बाहर खेतोंमें ले जाकर अपने हाथसे मोतीका एक-एक दाना
लेकर, उन्होंने उसी भाँति सारे खेतमें छींट दिया, जैसे किसान अपने खेतोंमें अनाजके
दाने बिखेर देता है । तदनन्तर नन्द भी जब उन मुक्ता- मालाओंकी गणना करने लगे, तब उनमें
सौ मालाओंकी कमी देखकर उनके मनमें संदेह हुआ ।। १९ – २२ ॥
नन्दजी बोले - हाय ! पहले तो मेरे घरमें जिस रत्नराशिके
समान दूसरी कोई रत्नराशि थी ही नहीं, उसमें भी अब सौकी कमी हो गयी। अहो ! चारों ओर से भाई-बन्धुओं के बीच मुझपर बड़ा भारी कलङ्क
पोता जायगा । अथवा यदि श्रीकृष्ण या बलरामने खेलनेके लिये उसमेंसे कुछ मोती निकाल लिये
हों तो अब दीनचित्त होकर मैं उन्हीं दोनों बालकोंसे पूछूंगा ॥ २३-२४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
🌹💖🥀🌹जय श्रीहरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
गोविंद गोविंद हरे मुरारे
गोविंद गोविंद मुकुंद कृष्ण
गोविंद गोविंद रथांग पाणे
गोविंद दामोदर माधवेति
हे नाथ नारायण वासुदेव:
जय श्री राधे कृष्ण🙏🌺