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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
तीसरा अध्याय (पोस्ट 03)
श्रीकृष्ण का गोवर्धन
पर्वत को उठाकर इन्द्र के द्वारा क्रोधपूर्वक
करायी गयी घोर जलवृष्टि से रक्षा करना
मत्तमैरावतं नागं समारुह्य पुरन्दरः ।
ससैन्यः क्रोधसंयुक्तो व्रजमण्डलमाययौ ॥२४॥
दूराच्चिक्षेप वज्रं स्वं नंदगोष्ठजिघांसया ।
स्तंभयामास शक्रस्य सवज्रं माधवो भुजम् ॥२५॥
भयभीतस्तदा शक्रः सांवर्तकगणैः सह ।
दुद्राव सहसा देवैर्यथेभः सिंहताडितः ॥२६॥
तदैवार्कोदयो जातो गता मेघा इतस्ततः ।
वाता उपरताः सद्यो नद्यः स्वल्पजला नृप ॥२७॥
विपंकं भूतलं जातं निर्मलं खं बभूव ह ।
चतुष्पदाः पक्षिणश्च सुखमापुस्ततस्ततः ॥२८॥
हरिणोक्तास्तदा गोपा निर्ययुर्गिरिगर्ततः ।
स्वं स्वं धनं गोधनं च समादाय शनैः शनैः ॥२९॥
निर्यातेति वयस्यांश्च प्राह गोवर्धनोद्धरः ।
ते तमाहुश्च निर्गच्छ धारयामोऽद्रिमोजसा ॥३०॥
इति वादपरान् गोपान् गोवर्धनधरो हरिः ।
तदर्द्धं च गिरेर्भारं प्रादात्तेभ्यो महामनाः ॥३१॥
पतितास्तेन भारेण गोपबालाश्च निर्बलाः ॥३२॥
करेण तान् समुत्थाप्य स्वस्थाने पूर्ववद्गिरिम् ।
सर्वेषां पश्यतां कृष्णः स्थापयामास लीलया ॥३३॥
तदैव गोपीगणगोपमुख्याः
सम्पूज्य कृष्णं नृप नन्दसूनुम् ।
गन्धाक्षताद्यैर्दधिदुग्धभोगै-
र्ज्ञात्वा परं नेमुरतीव सर्वे ॥३४॥
नन्दो यशोदा नृप रोहिणी च
बलश्च सन्नन्दमुखाश्च वृद्धाः।
आलिंग्य कृष्णं प्रददुर्धनानि
शुभाशिषा संयुयुजुर्घृणार्ताः ॥३५॥
संश्लाघ्य तं गायनवाद्यतत्परा
नृत्यन्त आरान्नृप नन्दनन्दनम् ।
आजग्मुरेव स्वगृहान्व्रजौकसो
हरिं पुरस्कृत्य मनोरथं गताः ॥३६॥
तदैव देवा ववृषुः प्रहर्षिताः
पुष्पैः शुभैः सुन्दरनन्दनोद्भवैः ।
जगुर्यशः श्रीगिरिराजधारिणो
गन्धर्वमुख्या दिवि सिद्धसङ्घाः ॥३७॥
तदनन्तर मतवाले ऐरावत हाथीपर चढ़कर, अपनी सेना साथ
ले, रोषसे भरे हुए देवराज इन्द्र व्रजमण्डलमें आये। उन्होंने दूरसे ही नन्दनजको नष्ट
कर डालनेकी इच्छासे अपना वज्र चलानेकी चेष्टा की। किंतु माधवने वज्रसहित उनकी भुजाको
स्तम्भित कर दिया। फिर तो इन्द्र भयभीत हो गये और जैसे सिंहकी चोट खाकर हाथी भागे,
उसी प्रकार वे सांवर्तकगणों तथा देवताओंके साथ सहसा भाग चले ॥ २४-२६
॥
नरेश्वर ! उसी समय सूर्योदय हो गया। बादल इधर-उधर छँट
गये। हवा का वेग रुक गया और नदियोंमें बहुत थोड़ा पानी रह गया
। पृथ्वीपर पङ्कका नाम भी नहीं था । आकाश निर्मल हो गया । चौपाये और पक्षी सब ओर सुखी
हो गये। तब भगवान्की आज्ञा पाकर समस्त गोप पर्वत के गर्त- से
अपना-अपना गोधन लेकर धीरे-धीरे बाहर निकले ॥२७–२९॥
उसके बाद गोवर्धनधारीने अपने सखाओंसे कहा— 'तुमलोग
भी निकलो ।' तब वे बोले-नहीं, हम लोग अपने बलसे पर्वतको रोके हुए हैं; तुम्हीं निकल
जाओ।' उन सबको इस तरहकी बातें करते देख महामना गोवर्धनधारी श्रीहरिने पर्वतका आधा भार
उन- पर डाल दिया। बेचारे निर्बल गोप-बालक उस भारसे दबकर गिर पड़े। तब उन सबको उठाकर
श्रीकृष्णने उनके देखते-देखते पर्वतको पहलेकी ही भाँति लीलापूर्वक रख दिया ॥ ३०-३३ ॥
नरेश्वर ! उस समय प्रमुख गोपियों और प्रधान प्रधान
गोपोंने नन्दनन्दनका गन्ध और अक्षत आदिसे पूजन करके उन्हें दही-दूधका भोग अर्पित किया
और उनको परमात्मा जानकर सबने उनके चरणोंमें प्रणाम किया। राजन् ! नन्द, यशोदा, रोहिणी,
बलराम तथा सन्नन्द आदि वृद्ध गोपोंने श्रीकृष्णको हृदयसे लगाकर धनका दान किया और दयासे
द्रवित हो, उन्हें शुभाशीर्वाद प्रदान किये ॥ ३४-३५ ॥
तदनन्तर उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करके, समस्त व्रजवासी
सफल-मनोरथ हो नन्दनन्दनके समीप गाने, बजाने और नाचने लगे तथा उन श्रीहरिको आगे करके
अपने घरको लौटे। उसी समय हर्षसे भरे हुए देवता वहाँ नन्दन-वनके सुन्दर-सुन्दर फूलोंकी
वर्षा करने लगे तथा आकाशमें खड़े हुए प्रधान- प्रधान गन्धर्व और सिद्धोंके समुदाय गोवर्धनधारीके
यश गाने लगे ॥ ३६-३७ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गिरिराजखण्डके
अन्तर्गत श्रीनारद बहुलाश्व-संवादमें 'गोवर्धनोद्धारण' नामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित
श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
जय हो गिरिराज धरण
जवाब देंहटाएंगोवर्धन गिरधारी महाराज
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव
जय श्री राधे गोविंद
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