॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- सातवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)
भगवान् के लीलावतारों की कथा
विष्णोर्नु वीर्यगणनां कतमोऽर्हतीह ।
यः पार्थिवान्यपि कविर्विममे रजांसि ।
चस्कम्भ यः स्वरहसास्खलता त्रिपृष्ठं ।
यस्मात् त्रिसाम्यसदनाद् उरुकम्पयानम् ॥ ४० ॥
नान्तं विदाम्यहममी मुनयोऽग्रजास्ते ।
मायाबलस्य पुरुषस्य कुतोऽपरे ये ।
गायन् गुणान् दशशतानन आदिदेवः ।
शेषोऽधुनापि समवस्यति नास्य पारम् ॥ ४१ ॥
येषां स एष भगवान् दययेदनन्तः ।
सर्वात्मनाऽश्रितपदो यदि निर्व्यलीकम् ।
ते दुस्तरामतितरन्ति च देवमायां ।
नैषां ममाहमिति धीः श्वशृगालभक्ष्ये ॥ ४२ ॥
अपनी प्रतिभा के बल से पृथ्वी के एक-एक धूलि-कण को गिन चुकनेपर भी जगत् में ऐसा कौन पुरुष है, जो भगवान् की शक्तियों की गणना कर सके। जब वे त्रिविक्रम-अवतार लेकर त्रिलोकी को नाप रहे थे, उस समय उनके चरणों के अदम्य वेग से प्रकृतिरूप अन्तिम आवरण से लेकर सत्यलोक तक सारा ब्रह्माण्ड काँपने लगा था। तब उन्होंने ही अपनी शक्ति से उसे स्थिर किया था ॥ ४० ॥ समस्त सृष्टिकी रचना और संहार करनेवाली माया उनकी एक शक्ति है। ऐसी-ऐसी अनन्त शक्तियोंके आश्रय उनके स्वरूपको न मैं जानता हूँ और न वे तुम्हारे बड़े भाई सनकादि ही; फिर दूसरोंका तो कहना ही क्या है। आदिदेव भगवान् शेष सहस्र मुखसे उनके गुणोंका गायन करते आ रहे हैं; परन्तु वे अब भी उसके अन्तकी कल्पना नहीं कर सके ॥ ४१ ॥ जो निष्कपटभाव से अपना सर्वस्व और अपने आपको भी उनके चरणकमलों में निछावर कर देते हैं, उन पर वे अनन्त भगवान् स्वयं ही अपनी ओर से दया करते हैं और उनकी दयाके पात्र ही उनकी दुस्तर माया का स्वरूप जानते हैं और उसके पार जा पाते हैं। वास्तव में ऐसे पुरुष ही कुत्ते और सियारों के कलेवारूप अपने और पुत्रादि के शरीरमें ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है’ ऐसा भाव नहीं करते ॥४२॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🌹💖🥀🌺जय श्रीहरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण