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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
नवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
गिरिराज गोवर्धन की उत्पत्ति का वर्णन
श्रीनारद उवाच -
तथाऽस्तु चोक्त्वा भगवान् रहोयोग्यं विचिन्तयन् ।
स्वनेत्रपंकजाभ्यां तु हृदयं संददर्श ह ॥३२॥
तदैव कृष्णहृदयाद्गोपीव्यूहस्य पश्यतः ।
निर्गतं सजलं तेजोऽनुरागस्येव चांकुरम् ॥३३॥
पतितं रासभूमौ तद्ववृधे पर्वताकृति ।
रत्नधातुमयं दिव्यं सुनिर्झरदरीवृतम् ॥३४॥
कदंबबकुलाशोकलताजालमनोहरम् ।
मन्दारकुन्दवृन्दाढ्यं सुपक्षिगणसंकुलम् ॥३५॥
क्षणमात्रेण वैदेह लक्षयोजनविस्तृतम् ।
शतकोटिर्योजनानां लंबितं शेषवत्पुनः ॥३६॥
ऊर्ध्वं समुन्नतं जातं पञ्चाशत्कोटियोजनम् ।
करीन्द्रवत्स्थितं शश्वत्पञ्चाशत्कोटिविस्तृतम् ॥३७॥
कोटियोजनदीर्घांगैः शृङ्गानां शतकैः स्फुरत् ।
उच्चकैः स्वर्णकलशैः प्रासादमिव मैथिल ॥३८॥
गोवर्धनाख्यं तच्चाहुः शतशृङ्गं तथापरे ।
एवंभूतं तु तदपि वर्द्धितं मनसोत्सुकम् ॥३९॥
कोलाहले तदा जाते गोलोके भयविह्वले ।
वीक्ष्योत्थाय हरिः साक्षाद्धस्तेनाशु तताड तम् ॥४०॥
किं वर्द्धसे भो प्रच्छिन्नं लोकमाच्छाद्य तिष्ठसि ।
किं वा न चैते वसितुं तच्छान्तिमकरोद्धरिः ॥४१॥
संवीक्ष्य तं गिरिवरं प्रसन्ना भगवत्प्रिया ।
तस्मिन् रहःस्थले राजन् रराज हरिणा सह ॥४२॥
सोऽयं गिरिवरः साक्षाच्छ्रीकृष्णेन प्रणोदितः ।
सर्वतीर्थमयः श्यामो घनश्यामः सुरप्रियः ॥४३॥
भारतात्पश्चिमदिशि शाल्मलीद्वीपमध्यतः ।
गोवर्धनो जन्म लेभे पत्न्यां द्रोणाचलस्य च ॥४४॥
पुलस्त्येन समानीतो भारते व्रजमण्डले ।
वैदेह तस्यागमनं मया तुभ्यं पुरोदितम् ॥४५॥
यथा पुरा वर्द्धितुमुत्सुकोऽयं
तथा पिधानं भविता भुवो वा ।
विचिन्त्य शापं मुनिना परेशो
द्रोणात्मजायेति ददौ क्षयार्थम् ॥४६॥
नारदजी कहते हैं- राजन् ! तब 'तथास्तु' कहकर भगवान् ने एकान्त – लीला के योग्य स्थान का चिन्तन करते हुए नेत्र – कमलों द्वारा अपने
हृदयकी ओर देखा। उसी समय गोपी समुदाय के देखते-देखते श्रीकृष्णके
हृदयसे अनुरागके मूर्तिमान् अङ्कुरकी भाँति एक सघन तेज प्रकट हुआ । रासभूमिमें गिरकर
वह पर्वतके आकारमें बढ़ गया। वह सारा का सारा दिव्य पर्वत रत्नधातुमय था । सुन्दर झरनों
और कन्दराओंसे उसकी बड़ी शोभा थी ।। ३२-३४ ।।
कदम्ब, बकुल, अशोक आदि वृक्ष तथा लता-जाल उसे और भी
मनोहर बना रहे थे । मन्दार और कुन्दवृन्दसे सम्पन्न उस पर्वतपर भाँति-भाँतिके पक्षी
कलरव कर रहे थे ।। ३५ ।।
विदेहराज ! एक ही क्षणमें वह पर्वत एक लाख योजन विस्तृत
और शेषकी तरह सौ कोटि योजन लंबा हो गया ।। ३६ ।।
उसकी ऊँचाई पचास करोड़ योजनकी हो गयी। पचास कोटि योजनमें
फैला हुआ वह पर्वत सदाके लिये गजराजके समान स्थित दिखायी देने लगा। मैथिल ! उसके कोटि
योजन विशाल सैकड़ों शिखर दीप्तिमान् होने लगे। उन शिखरोंसे गोवर्धन पर्वत उसी प्रकार
सुशोभित हुआ, मानो सुवर्णमय उन्नत कलशोंसे कोई ऊँचा महल शोभा पा रहा हो ।। ३७ – ३८ ॥
कोई-कोई विद्वान् उस गिरि को
गोवर्धन और दूसरे लोग 'शतशृङ्ग' कहते हैं । इतना विशाल होने पर भी वह पर्वत मनसे उत्सुक-सा होकर बढ़ने लगा। इससे गोलोक भयसे विह्वल
हो गया और वहाँ सब ओर कोलाहल मच गया। यह देख श्रीहरि उठे और अपने साक्षात् हाथसे शीघ्र
ही उसे ताड़ना दी और बोले- 'अरे ! प्रच्छन्नरूप से बढ़ता क्यों
जा रहा है ? सम्पूर्ण लोक को आच्छादित करके स्थित हो गया ? क्या
ये लोक यहाँ निवास करना नहीं चाहते ?" यों कहकर श्रीहरि ने
उसे शान्त किया—उसका बढ़ना रोक दिया । उस उत्तम पर्वत को प्रकट
हुआ देख भगवत्प्रिया श्रीराधा बहुत प्रसन्न हुईं। राजन् ! वे उसके एकान्तस्थलमें श्रीहरि के साथ सुशोभित होने लगीं ।। ३९-४२ ।।
इस प्रकार यह गिरिराज साक्षात् श्रीकृष्णसे प्रेरित
होकर इस व्रजमण्डलमें आया है। यह सर्वतीर्थमय है। लता कुञ्जोंसे श्याम आभा धारण करनेवाला
यह श्रेष्ठ गिरि मेघकी भाँति श्याम तथा देवताओंका प्रिय है । भारतसे पश्चिम दिशामें
शाल्मलिद्वीपके मध्य- भागमें द्रोणाचल की पत्नी के गर्भसे गोवर्धन ने जन्म लिया । महर्षि पुलस्त्य
उसको भारतके व्रजमण्डलमें ले आये । विदेहराज ! गोवर्धनके आगमन की
बात मैं तुमसे पहले निवेदन कर चुका हूँ ।। ४३-४५
।।
जैसे यह पहले गोलोकमें उत्सुकतापूर्वक बढ़ने लगा था,
उसी तरह यहाँ भी बढ़े तो वह पृथ्वी तक के
लिये एक ढक्कन बन जायगा -यह सोचकर मुनि ने द्रोणपुत्र गोवर्धनको
प्रतिदिन क्षीण होने का शाप दे दिया ।। ४६ ॥
इस प्रकार श्री गर्गसंहिता में श्रीगिरिराजखण्ड के अन्तर्गत श्रीनारद- बहुलाश्व-संवाद में 'श्रीगिरिराज की उत्पत्ति' नामक नवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥ ९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
♻️🌹🌹♻️जय श्रीकृष्ण🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
जय हो गोवर्धन गिरधारी महाराज
जय गिरिराज धरण गोवर्धन गिरधारी सांवरे 🙏🙏
जय श्री राधे गोविन्द 🙏🌹💐🙏