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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
छठा अध्याय (पोस्ट 03)
गोपों का वृषभानुवर के वैभव की प्रशंसा करके
नन्दनन्दन की भगवत्ता का परीक्षण करनेके लिये उन्हें प्रेरित करना
और वृषभानुवर का कन्या के विवाहके लिये
वरको देने के निमित्त बहुमूल्य एवं बहुसंख्यक मौक्तिक-हार भेजना
तथा श्रीकृष्णकी कृपासे नन्दराजका वधू के लिये उनसे भी अधिक मौक्तिकराशि
भेजना
श्रीनारद उवाच -
इत्थं विचार्य नन्दोऽपि कृष्णं पप्रच्छ सादरम् ।
प्रहसन् भगवान्नन्दं प्राह गोवर्धनोद्धरः ॥२५॥
श्रीभगवानुवाच -
कृषीवला वयं गोपाः सर्वबीजप्ररोहकाः ।
क्षेत्रे मुक्ताप्रबीजानि विकीर्णीकृतवाहनम् ॥२६॥
श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वाथ स्वात्मजेनोक्तं तं निर्भर्त्स्य व्रजेश्वरः ।
तानि नेतुं तत्सहितस्तत्क्षेत्राणि जगाम ह ॥२७॥
तत्र मुक्ताफलानां तु शाखिनः शतशः शुभाः ।
दृश्यन्ते दीर्घवपुषो हरित्पल्लवशोभिताः ॥२८॥
मुक्तानां स्तबकानां तु कोटिशः कोटिशो नृप ।
संघा विलंबिता रेजुर्ज्योतींषीव नभःस्थले ॥२९॥
तदाऽतिहर्षितो नन्दो ज्ञात्वा कृष्णं परेश्वरम् ।
मुक्ताफलानि दिव्यानि पूर्वस्थूलसमानि च ॥३०॥
तेषां तु कोटिभाराणि निधाय शकटेषु च ।
ददौ तेभ्यो वृणानेभ्यो नन्दराजो व्रजेश्वरः ॥३१॥
ते गृहीत्वाऽथ तत्सर्वं वृषभानुवरं गताः ।
सर्वेषां शृण्वतां नन्दवैभवं प्रजगुर्नृप ॥३२॥
तदाऽतिविस्मिताः सर्वे ज्ञात्वा नन्दसुतं हरिम् ।
वृषभानुवरं नेमुर्निःसन्देहा व्रजौकसः ॥३३॥
राधा हरेः प्रिया ज्ञाता राधायाश्च प्रियो हरिः ।
ज्ञातो व्रजजनैः सर्वैस्तद्दिनान्मैथिलेश्वर ॥३४॥
मुक्ताक्षेपः कृतो यत्र हरिणा नन्दसूनुना ।
मुक्तासरोवरस्तत्र जातो मैथिल तीर्थराट् ॥३५॥
एकं मुक्ताफलस्यापि दानं तत्र करोति यः ।
लक्षमुक्तादानफलं समाप्नोति न संशयः ॥३६॥
एवं ते कथितो राजन् गिरिराजमहोत्सवः ।
भुक्तिमुक्तिप्रदो नॄणां किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥३७॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार विचारकर नन्द ने भी श्रीकृष्णसे उन मोतियोंके विषय में आदरपूर्वक
पूछा। तब जोरसे हँसते हुए गोवर्धनधारी भगवान् नन्द से बोले-- ॥२५॥
श्रीभगवान् ने कहा- बाबा ! हम
सारे गोप किसान हैं, जो खेतोंमें सब के बीज बोया करते अतः हमने खेत में
मोती के बीज बिखेर दिये हैं ॥ २६ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! बेटेके मुँहसे यह बात
सुनकर व्रजेश्वर नन्दने उसे डाँट बतायी और उन सबको चुन- बीनकर लानेके लिये उसके साथ
खेतोंमें गये । वहाँ मुक्ताफलके सैकड़ों सुन्दर वृक्ष दिखायी देने लगे, जो हरे-हरे
पल्लवोंसे सुशोभित और विशालकाय थे ॥ २७-२८ ॥
नरेश्वर ! जैसे आकाशमें झुंड- के झुंड तारे शोभा पाते
हैं, उसी प्रकार उन वृक्षोंमें कोटि-कोटि मुक्ताफलोंके गुच्छे समूह के समूह लटके हुए
सुशोभित हो रहे थे। तब हर्षसे भरे हुए व्रजेश्वर नन्दराजने श्रीकृष्णको परमेश्वर जानकर
पहलेके समान ही मोटे-मोटे दिव्य मुक्ताफल उन वृक्षोंसे तोड़ लिये और उनके एक कोटि भार
गाड़ियों- पर लदवाकर उन वर-वरणकर्ताओंको दे दिये । नरेश्वर ! वह सब लेकर वे वरदर्शी
लोग वृष- भानुवरके पास गये और सबके सुनते हुए नन्दराजके अनुपम वैभवका वर्णन करने लगे
। २९ – ३२ ॥
उस समय सब गोप बड़े विस्मित हुए। नन्द- नन्दनको साक्षात्
श्रीहरि जानकर समस्त व्रज- वासियोंका संशय दूर हो गया और उन्होंने वृषभानुवरको प्रणाम
किया। मिथिलेश्वर ! उसी दिन से व्रजके सब लोगोंने यह जान लिया कि श्रीराधा श्रीहरिकी
प्रियतमा हैं और श्रीहरि श्रीराधाके प्राणवल्लभ हैं ॥ ३३-३४ ॥
मिथिलापते
! जहाँ नन्दनन्दन श्रीहरिने मोती बिखेरे थे, वहाँ 'मुक्ता-सरोवर' प्रकट हो गया, जो
तीर्थोंका राजा है। जो वहाँ एक मोती का भी दान करता है, वह लाख
मोतियोंके दानका फल पाता है, इसमें संशय नहीं है। राजन् ! इस प्रकार मैंने तुमसे गिरिराज-महोत्सवका
वर्णन किया, जो मनुष्योंके लिये भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला है। अब तुम और क्या सुनना
चाहते हो ? ॥ ३५--३७॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीगिरिराजखण्डके
अन्तर्गत श्रीनारद - बहुलाश्व-संवादमें 'श्रीहरिकी भगवत्ताका परीक्षण' नामक छठा अध्याय
पूरा हुआ || ६ ||
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
🌷💖💐💐जय श्रीहरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
गोवर्धन वासी सांवरे
हे गोविंद हे गोपाल
हे करुणामय दीन दयाल
हे नाथ नारायण वासुदेव: