॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- नवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
ब्रह्माजी का भगवद्धामदर्शन और भगवान् के द्वारा उन्हें चतु:श्लोकी भागवतका उपदेश
आत्मतत्त्वविशुद्ध्यर्थं यदाह भगवानृतम् ।
ब्रह्मणे दर्शयन् रूपं अव्यलीकव्रतादृतः ॥ ४ ॥
स आदिदेवो जगतां परो गुरुः
स्वधिष्ण्यमास्थाय सिसृक्षयैक्षत ।
तां नाध्यगछ्रद्दृशमत्र सम्मतां
प्रपञ्चनिर्माणविधिर्यया भवेत् ॥ ५ ॥
स चिन्तयन् द्व्यक्षरमेकदाम्भसि
उपाशृणोत् द्विर्गदितं वचो विभुः ।
स्पर्शेषु यत्षोडशमेकविंशं
निष्किञ्चनानां नृप यद्धनं विदुः ॥ ६ ॥
निशम्य तद्वक्तृदिदृक्षया दिशो
विलोक्य तत्रान्यदपश्यमानः ।
स्वधिष्ण्यमास्थाय विमृश्य तद्धितं
तपस्युपादिष्ट इवादधे मनः ॥ ७ ॥
ब्रह्माजी की निष्कपट तपस्यासे प्रसन्न होकर भगवान् ने उन्हें अपने रूपका दर्शन कराया और आत्मतत्त्वके ज्ञानके लिये उन्हें परम सत्य परमार्थ वस्तुका उपदेश किया (वही बात मैं तुम्हें सुनाता हूँ) ॥ ४ ॥
तीनों लोकों के परम गुरु आदिदेव ब्रह्मा जी अपने जन्मस्थान कमल पर बैठकर सृष्टि करनेकी इच्छा से विचार करने लगे। परन्तु जिस ज्ञानदृष्टि से सृष्टि का निर्माण हो सकता था और जो सृष्टि व्यापारके लिये वाञ्छनीय है, वह दृष्टि उन्हें प्राप्त नहीं हुई ॥ ५ ॥ एक दिन वे यही चिन्ता कर रहे थे कि प्रलयके समुद्र में उन्होंने व्यञ्जनों के सोलहवें एवं इक्कीसवें अक्षर ‘त’ तथा ‘प’ को—‘तप-तप’ (‘तप करो’) इस प्रकार दो बार सुना। परीक्षित् ! महात्मालोग इस तपको ही त्यागियोंका धन मानते हैं ॥ ६ ॥ यह सुनकर ब्रह्माजी ने वक्ता को देखने की इच्छासे चारों ओर देखा, परन्तु वहाँ दूसरा कोई दिखायी न पड़ा। वे अपने कमलपर बैठ गये और ‘मुझे तप करने की प्रत्यक्ष आज्ञा मिली है’ ऐसा निश्चयकर और उसी में अपना हित समझकर उन्होंने अपने मनको तपस्यामें लगा दिया ॥ ७ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🌹💟🕉️💐जय श्रीहरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
हरि:शरणम् हरिसीशरणम् हरि: शरणम् 🙏🙏नारायण नारायण नारायण नारायण