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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
सातवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
गिरिराज गोवर्धनसम्बन्धी तीर्थोंका वर्णन
दृष्ट्वा शक्रपदं याति नत्वा
ब्रह्मपदं च तत् ।
विलुंठन् यस्य रजसा साक्षाद्विष्णुपदं व्रजेत् ॥१३॥
गोपानामुष्णिषाण्यत्र चोरयामास माधवः ।
औष्णिषं नाम तत्तीर्थं महापापहरं गिरौ ॥१४॥
तत्रैकदा वै दधिविक्रयार्थं
विनिर्गतो गोपवधूसमूहः ।
श्रुत्वा क्वणन्नूपुरशब्दमारा-
द्रुरोध तन्मार्गमनंगमोही ॥१५॥
वंशीधरो वेत्रवरेण गोपैः
पुरश्च तासां विनिधाय पादम् ।
मह्यं करादानधनाय दानं
देहीति गोपीर्निजगाद मार्गे ॥१६॥
गोप्य ऊचुः -
वक्रस्त्वमेवासि समास्थितः पथि
गोपार्भकैर्गोरसलम्पटो भृशम् ।
मात्रा च पित्रा सह कारयामो
बलाद्भवन्तं किल कंसबन्धने ॥१७॥
श्रीभगवानुवाच -
कंसं हनिष्यामि महोग्रदण्डं
सबांधवं मे शपथो गवां च ।
एवं करिष्यामि यदोः पुरे बला-
न्नेष्ये सदाहं गिरिराजभूमेः ॥१८॥
श्रीनारद उवाच -
इत्युक्त्वा दधिपात्राणि बालैर्नीत्वा पृथक् पृथक् ।
भूपृष्ठे पोथयामास सानन्दं नन्दनन्दनः ॥१९॥
अहो एष परं धृष्टो निर्भयो नन्दनन्दनः ।
निरंकुशो भाषणीयो वने वीरः पुरेऽबलः ॥२०॥
ब्रुवामहे यशोदायै नन्दाय च किलाद्य वै ।
एवं वदन्त्यस्ता गोप्यः सस्मिताः प्रययुर्गृहान् ॥२१॥
नीपपालाशपत्राणां कृत्वा द्रोणानि माधवः ।
जघास बालकैः सार्द्धं पिच्छलानि दधीनि च ॥२२॥
द्रोणाकाराणि पत्राणि बभूवुः शाखिनां तदा ।
तत्क्षेत्रं च महापुण्यं द्रोणं नाम नृपेश्वर ॥२३॥
दधिदानं तत्र कृत्वा पीत्वा पत्रधृतं दधि ।
नमस्कुर्यान्नरस्तस्य गोलोकान्न च्युतिर्भवेत् ॥२४॥
नेत्रे त्वाच्छाद्य यत्रैव लीनोऽभून्माधवोऽर्भकैः ।
तत्र तीर्थं लौकिकं च जातं पापप्रणाशनम् ॥२५॥
वहाँ 'शक्रपद' और 'ब्रह्मपद' नामक तीर्थ हैं, जिनका
दर्शन और जिन्हें प्रणाम करके मनुष्य इन्द्रलोक और ब्रह्मलोकमें जाता है। जो वहाँकी
धूलमें लोटता है, वह साक्षात् विष्णुपदको प्राप्त होता है । जहाँ माधवने गोपोंकी पगड़ियाँ
चुरायी थीं, वह महापापहारी तीर्थ उस पर्वतपर 'औष्णीष' नामसे प्रसिद्ध है ॥ १३-१४ ॥
एक समय वहाँ दधि बेचनेके लिये गोपवधुओंका समुदाय आ
निकला। उनके नूपुरोंकी झनकार सुनकर मदनमोहन श्रीकृष्णने निकट आकर उनकी राह रोक ली ।
वंशी और वेत्र धारण किये श्रीकृष्णने ग्वाल- बालोंद्वारा उनको चारों ओरसे घेर लिया
और स्वयं उनके आगे पैर रखकर मार्गमें उन गोपियोंसे बोले- 'इस मार्गपर हमारी ओरसे कर
वसूल किया जाता है, सो तुमलोग हमारा दान दे दो' ॥ १५-१६ ॥
गोपियाँ बोलीं- तुम बड़े टेढ़े हो, जो ग्वाल- बालोंके
साथ राह रोककर खड़े हो गये ? तुम बड़े गोरस - लम्पट हो । हमारा रास्ता छोड़ दो, नहीं
तो माँ-बापसहित तुमको हम बलपूर्वक राजा कंसके कारागारमें डलवा देंगी ॥ १७ ॥
श्रीभगवान् ने कहा- अरी! कंसका क्या डर अरी ! कंसका
क्या डर दिखाती हो ? मैं गौओंकी शपथ खाकर कहता हूँ, महान् उग्रदण्ड धारण करनेवाले कंसको
मैं उसके बन्धु बान्धव सहित मार डालूँगा; अथवा मैं उसे मथुरासे गोवर्धनकी घाटीमें खींच
लाऊँगा ।। १८ ।।
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर बालकोंद्वारा
पृथक्-पृथक् सबके दहीपात्र मँगवाकर नन्दनन्दनने बड़े आनन्दके साथ भूमिपर पटक दिये।
गोपियाँ परस्पर कहने लगीं— 'अहो ! यह नन्दका लाला तो बड़ा ही ढीठ और निडर है, निरङ्कुश
है। । इसके साथ तो बात भी नहीं करनी चाहिये । यह गाँवमें तो निर्बल बना रहता है और
वनमें आकर वीर बन जाता है। हम आज ही चलकर यशोदाजी और नन्द- रायजीसे कहती हैं ।' — यों
कहकर गोपियाँ मुस्कराती हुई अपने घरको लौट गयीं ॥ १९ – २१ ॥
इधर माधवने कदम्ब और पलाशके पत्तेके दोने बनाकर बालकोंके
साथ चिकना चिकना दही ले लेकर खाया। तबसे वहाँके वृक्षोंके पत्ते दोनेके आकारके होने
लग गये। नृपेश्वर ! वह परम पुण्य क्षेत्र 'द्रोण' नामसे प्रसिद्ध हुआ ॥ २२-२३ ॥
जो मनुष्य वहाँ दहीं दान करके
स्वयं भी पत्ते में रखे हुए दही को पीकर
उस तीर्थ को नमस्कार करता है, उसकी गोलोक से
कभी च्युति नहीं होती । जहाँ नेत्र मूँदकर माधव बालकों के साथ
लुका-छिपी के खेल खेलते थे, वहाँ 'लौकिक' नामक पापनाशन तीर्थ
हो गया ॥ २४-२५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
🌹💖🥀🪔जय श्रीहरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
अद्भुत विलक्षण है हर लीला तुम्हारी हे कृष्ण गोविंद मुरारी
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव