रविवार, 29 सितंबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) चौथा अध्याय


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

चौथा अध्याय

 

कोसलप्रान्तीय स्त्रियों का व्रज में गोपी होकर श्रीकृष्ण के प्रति अनन्यभाव से प्रेम करना

 

श्रीनारद उवाच -
कौशलानां गोपिकानां वर्णनं शृणु मैथिल ।
 सर्वपापहरं पुण्यं श्रीकृष्णचरितामृतम् ॥ १ ॥
 नवोपनन्दगेहेषु जाता रामवराद्‌व्रजे ।
 परिणीता गोपजनै रत्नरभूषणभूषिताः ॥ २ ॥
 पूर्णचन्द्रप्रतीकाशा नवयौवनसंयुताः ।
 पद्मिन्यो हंसगमनाः पद्मपत्रविलोचनाः ॥ ३ ॥
 जारधर्मेण सुस्नेहं सुदृढं सर्वतोऽधिकम् ।
 चक्रुः कृष्णे नन्दसुते कमनीये महात्मनि ॥ ४ ॥
 ताभिः सार्द्धं सदा हास्यं व्रजवीथीषु माधवः ।
 स्मितैः पीतपटादानैः कर्षणैः स चकार ह ॥ ५ ॥
 दधिविक्रयार्थं यान्त्यस्ताः कृष्ण कृष्णेति चाब्रुवन् ।
 कृष्णे हि प्रेमसंयुक्ता भ्रमंत्यः कुंजमडले ॥ ६ ॥
 खे वायौ चाग्निजलयोर्मह्यां ज्योतिर्दिशासु च ।
 द्रुमेषु जनवृन्देषु तासां कृष्णो हि लक्ष्यते ॥ ७ ॥
 प्रेमलक्षणसंयुक्ताः श्रीकृष्णहृतमानसाः ।
 अष्टभिः सात्त्विकैर्भावैः संपन्नास्ताश्च योषितः ॥ ८ ॥
 प्रेम्णा परमहंसानां पदवीं समुपागताः ।
 कृष्णनन्दाः प्रधावन्त्यो व्रजवीथीषु ता नृप ॥ ९ ॥
 जडा जडं न जानंत्यो जडोन्मत्तपिशाचवत् ।
 अब्रुवन्त्यो ब्रुवन्त्यो वा गतलज्जा गतव्यथाः ॥ १० ॥
 एवं कृतार्थतां प्राप्प्तास्तन्मया याश्च गोपिकाः ।
 बलादाकृष्य कृष्णस्य चुचुंबुर्मुखपंकजम् ॥ ११ ॥
 तासां तपः किं कथयामि राजन्
     पूर्णे परे ब्रह्मणि वासुदेवे ।
 याश्चक्रिरे प्रेम हृदिंद्रियाद्यै-
     र्विसृज्य लोकव्यवहारमार्गम् ॥ १२ ॥
 या रासरंगे विनिधाय बाहुं
     कृष्णांसयोः प्रेमविभिन्नचित्ताः ।
 चक्रुर्वशे कृष्णमलं तपस्त-
     द्‌वक्तुं न शक्तो वदनैः फणीन्द्रः ॥ १३ ॥
 योगेन सांख्येन शुभेन कर्मणा
     न्यायादिवैशेषिकतत्त्ववित्तमैः ।
 यत्प्राप्यते तच्च पदं वेदेहराट्
     संप्राप्यते केवलभक्तिभावतः ॥ १४ ॥
 भक्त्यैव वश्यो हरिरादिदेवः
     सदा प्रमाणं किल चात्र गोप्यः ।
 सांख्यं च योगं न कृतं कदापि
     प्रेम्णैव यस्य प्रकृतिं गताः स्युः ॥ १५ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— मिथिलेश्वर ! अब कोसल- प्रदेशकी गोपिकाओंका वर्णन सुनो। यह श्रीकृष्ण चरितामृत समस्त पापोंका नाश करनेवाला तथा पुण्य-जनक है। कोसलप्रान्तकी स्त्रियाँ श्रीरामके वरसे व्रजमें नौ उपनन्दोंके घरोंमें उत्पन्न हुईं और व्रजके गोपजनोंके साथ उनका विवाह हो गया। वे सब-की- सब रत्नमय आभूषणोंसे विभूषित थीं। उनकी अङ्गकान्ति पूर्ण चन्द्रमाकी चाँदनीके समान थी। वे नूतन यौवनसे सम्पन्न थीं। उनकी चाल हंसके समान थी और नेत्र प्रफुल्ल कमलदल के समान विशाल थे । वे पद्मिनी जाति की नारियाँ थीं । उन्होंने कमनीय महात्मा नन्द-नन्दन श्रीकृष्णके प्रति जारधर्मके अनुसार उत्तम, सुदृढ़ तथा सबसे अधिक स्नेह किया ॥ १-४ ॥                                                                                                                                                                              व्रजकी गलियोंमें माधव मुस्कराकर पीताम्बर छीन- कर और आँचल खींचकर उनके साथ सदा हास- परिहास किया करते थे । वे गोपबालाएँ जब दही बेचने- के लिये निकलतीं तो 'दही लो, दही लो' -यह कहना भूलकर 'कृष्ण लो, कृष्ण लो' कहने लगती थीं । श्रीकृष्णके प्रति प्रेमासक्त होकर वे कुञ्जमण्डलमें घूमा करती थीं। आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, नक्षत्र- मण्डल, सम्पूर्ण दिशा, वृक्ष तथा जनसमुदायोंमें भी उन्हें केवल कृष्ण ही दिखायी देते थे । प्रेमके समस्तलक्षण उनमें प्रकट थे। श्रीकृष्णने उनके मन हर लिये थे । वे सारी व्रजाङ्गनाएँ आठों सात्त्विक भावों से सम्पन्न थीं*  ॥ ५-८ ॥

प्रेम ने उन सबको परमहंसों (ब्रह्मनिष्ठ महात्माओं) की अवस्था को पहुँचा दिया था। नरेश्वर ! वे कान्तिमती गोपाङ्गनाएँ श्रीकृष्णके आनन्दमें ही मग्न हो व्रजकी गलियोंमें विचरा करती थीं। उनमें जड़-चेतनका भान नहीं रह गया था । वे जड, उन्मत्त और पिशाचोंकी भाँति कभी मौन रहतीं और कभी बहुत बोलने लगती थीं। वे लाज और चिन्ताको तिलाञ्जलि दे चुकी थीं। इस प्रकार कृतार्थताको प्राप्त हो जो श्रीकृष्णमें तन्मय हो रही थीं, वे गोपाङ्गनाएँ बलपूर्वक खींचकर श्रीकृष्णके मुखार- विन्दको चूम लेती थीं। राजन् ! उनके तपका मैं क्या वर्णन करूँ ? जो सारे लोक व्यवहार एवं मर्यादा- मार्गको तिलाञ्जलि देकर हृदय तथा इन्द्रिय आदिके द्वारा पूर्ण परब्रह्म वासुदेवमें अविचल प्रेम करती थीं ॥ ९-१२

जो रास-क्रीडामें श्रीकृष्णके कंधोंपर अपनी बाँहें रखकर, प्रेमसे विगलितचित्त हो श्रीकृष्णको पूर्णतया अपने वशमें कर चुकी थीं, उनकी तपस्याका अपने सहस्रमुखोंसे वर्णन करनेमें नागराज शेष भी समर्थ नहीं हैं ॥ १३

विदेहराज ! न्याय-वैशेषिक आदि दर्शनोंके तत्त्वज्ञोंमें श्रेष्ठतम महात्मा योग-सांख्य और शुभ- कर्मद्वारा जिस पदको प्राप्त करते हैं, वहीं पद केवल भक्ति भावसे उपलब्ध हो जाता है। आदि देव श्रीहरि केवल भक्तिसे ही वशमें होते हैं, निश्चय ही इस विषय में सदा गोपियाँ ही प्रमाण हैं। उन्होंने कभी सांख्य और योगका अनुष्ठान नहीं किया, तथापि केवल प्रेमसे ही वे भगवत्स्वरूपता को प्राप्त हो गयीं ॥ १४ – १५ ॥

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* आठ सात्त्विक भावोंके नाम इस प्रकार हैं-

'अङ्गोंका अकड़ जाना, पसीना होना, रोमाञ्च हो आना, बोलते समय आवाजका बदल जाना, शरीरमें कम्पन होना, मुँहका रंग उड़ जाना, नेत्रोंसे आँसू बहना तथा मरणान्तिक अवस्थातक पहुँच जाना — ये आठ प्रेमके सात्त्विक भाव माने गये हैं।

 

इस प्रकार श्रीगर्ग संहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत नारद-बहुलाश्व-संवादमें 'कोसलप्रान्तीय गोपिकाओंका आख्यान' नामक चौथा अध्याय पूरा हुआ ॥ ४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



1 टिप्पणी:

  1. 🥀💖🌹जय श्री कृष्ण🙏🙏
    ॐ श्री परमात्मने नमः
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    जय श्री राधे गोविन्द

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